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षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ४३. $ २८बन्धश्च प्राकृतिकवैकारिकंदाक्षिणभेदात् त्रिविधैः । तथाहि-प्रकृताधात्मज्ञानाद ये प्रकृतिमुपासते, तेषां प्राकृतिको बन्धः । ये विकारानेव भूतेन्द्रियाहंकारबुद्धीः पुरुषबुद्धयोपासते, तेषां वैकारिकः। इष्टापूर्ते दाक्षिणः, पुरुषतत्त्वानभिज्ञो होष्टापूर्तकारी कामोपहतमना बैध्यत इति ।
"इष्टापूर्त मन्यमाना वरिष्ठं, नान्यच्छ्यो येऽभिनन्दन्ति मूढाः।
नाकस्य पृष्ठे ते सुकृतेन भूत्वा, इमं लोकं होनतरं वा विशन्ति ॥१॥" [मुण्डक, १।२।१०] इति । बन्धाच्च प्रेत्यसंसरणरूपः संसारः प्रवर्तते।
६२९. सांख्यमते च पुरुषस्य प्रकृतिविकृत्यनात्मकस्य न बन्धमोक्षसंसाराः, किं तु प्रकृतेरेव । तथा च कापिला:__"तस्मान्न बध्यते नैव मुच्यते नापि संसरति कश्चित् ।
__ संसरति बध्यते मुच्यते च नानाश्रया प्रकृतिः ॥१॥" [ सांख्यका. ६२ । ] इति । प्रकृतिसे अपने स्वरूपको भिन्न न समझनेके कारण मोहसे संसरण-संसारमें परिभ्रमण करता रहता है।" इसलिए सुख-दुःख मोहस्वरूपवाली प्रकृतिको जबतक आत्मासे भिन्न नहीं समझा जाता तब तक मोक्ष नहीं हो सकता। प्रकृतिको आत्मासे भिन्न रूपमें देखनेपर तो प्रकृतिकी प्रवृत्ति अपने आप रुक जाती है और प्रकृतिका व्यापार रुक जानेपर पुरुषका अपने शुद्धचैतन्य स्वरूपमें स्थित हो जाना ही मोक्ष है। मोक्ष बन्धन के तोड़नेपर होता है । बन्धन तीन प्रकारका है-१. प्राकृतिक, २. वैकारिक, ३. दाक्षिण । प्रकृतिको आत्मा मानकर जो प्रकृतिको उपासना करते हैं, उसे ही अपना सर्वस्व समझते हैं उन मूढ़ प्रकृतिदर्शियोंको प्राकृतिक बन्ध होता है। जो विकार अर्थात् पृथिव्यादि भूत, इन्द्रियां, अहंकार तथा बुद्धिको पुरुष समझकर इन विकारोंकी ही उपासना करते हैं उन व्यक्तियोंको वैकारिक बन्ध होता है। श्रुतिविहित यज्ञादिको तथा स्मृति प्रतिपादित बावड़ी-कुओं आदि बनवानेको ही उत्कृष्ट कर्तव्य मानना दाक्षिण बन्ध है । पुरुष तत्त्वको नहीं समझकर आत्मज्ञानके बिना स्वर्ग आदि सांसारिक कामनाओंसे श्रुतिविहित यज्ञ-दान आदि कर्म करनेसे तथा स्मार्त कुआं बनवाने आदिसे दाक्षिणबन्ध होता है। कहा भी है-"जो मूढ़ जन इष्टापूर्त-श्रुति प्रतिपादित यज्ञ आदि इष्ट, तथा स्मृति विहित कुआँ-बावड़ी आदि बनाने रूप पूर्त कर्मको ही वरिष्ठ-सर्वश्रेष्ठ मानकर अन्य किसी भी शुभकर्म या ध्यान आदिको कल्याणकारी नहीं समझते वे पहले यज्ञादिके फलसे स्वर्गमें उत्पन्न होकर भी अन्तमें इसी मनुष्य लोक में अथवा इससे भी हीन तिर्यग्लोक आदिमें जन्म लेते हैं।" __ बन्धसे परलोकमें जन्म लेना आदि संसारका जन्म-मरण चक्र चलने लगता है।
६.२९. सांख्य मतमें पुरुष न तो प्रकृति-कारणरूप है और न कार्यरूप ही अतः उसको न बन्ध होता है न मोक्ष और न संसार ही। ये सब बन्ध आदि तो प्रकृतिको ही होते हैं । कापिलोंने कहा है-"चूंकि पुरुष साक्षी आदि स्वरूपवाला है अतः न तो पुरुषको बन्ध होता है न वह
१. दाक्षिणकभे-म. १। २. “स च बन्धस्त्रिविधः प्रकृतिबन्धो वैकारिकबन्धो दाक्षिणबन्धश्च । तत्र प्रकृतिबन्धो नाम अष्टासु ( प्रकृतिबुद्धचहङ्कारतन्मात्रेष) प्रकृतिष परत्वेनाभिमानः । वैकारिकबन्धो नाम ब्रह्मा(बुद्धया)दिस्थानेषु श्रेयोबुद्धिः । दाक्षिणबन्धो नाम गवादिदानेज्यानिमित्तः ।" -सौ. माठरवृ. पृ. ६२ । “प्रकृतिलयः प्रकृतिबन्ध इत्युच्यते, यज्ञादिभिः दाक्षिणबन्ध इत्युच्यते, ऐश्वर्यादिनिमित्तो भोगो वैकारिक इत्युच्यते ।"-सां. माठरवृ. पृ. ६३। योगसू. तत्त्ववैशा. १।२४।। सांख्यसं. पृ. २४ । स्या. मं.पू. १९१ । "प्रकृतिबन्धः प्रकृतिलयः परत्वेनाभिमन्यतः । संन्यासिनामिन्द्रियेषु लयो वैकारिकोऽपरः ॥ गहिणां दक्षिणाबन्धो वदान्यत्वाभिमानिनाम्। इत्येषस्त्रिविधो बन्धस्त्रिविधो मोक्ष उच्यते ॥" -सांख्यसं. प. २४ । ३.-नाद्यः प्र-म.२।४.-तत्त्वाभि-भ २. । ५. बाध्यते म. २ । ६.-तेऽपि च यतो हि नाना-म.२।
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