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- का० ४३. ६२८ ]
सांख्यमतम् ।
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त्वं तु गमनादिक्रियावान्न 'पश्यसि' । ततो अन्धेनोचे --- रुचिरमिदम्, अहं भवन्तं स्कन्धे करयामि, एवमावयोर्वर्तनमस्तु' इति । ततोऽन्धेन पङ्गुर्द्रष्टृत्वगुणेन स्वं स्कन्धमधिरोपितो नगरं प्राप्य नाटकादिकं पश्यन् गीतादिकं चेन्द्रियविषयमन्यमप्युपलभ्यमानो यथा मोवते, तथा पङ्गुकल्पः शुद्धचैतन्यस्वरूपः पुरुषोऽप्यन्धकल्पां जडां प्रकृति सक्रियामाश्रितो बुद्धयध्यवसितं शब्दादिकं स्वात्मनि प्रतिबिम्बितं चेतयमानो मोदते, मोदमानश्च प्रकृति सुखस्वभावां मोहान्मन्यमानः संसारमधिवसति ॥४२॥
$ २७ तहि तस्य कथं मुक्तिः स्यादित्याह -
प्रकृतिवियोगो मोक्षः पुरुषस्य बतैतदन्तरज्ञानात् । मानत्रितयं चात्र प्रत्यक्षं लैङ्गिकं शाब्दम् ॥४३॥
$ २८. व्याख्या - बतेति पृच्छकानामामन्त्रणे, एतयोः प्रकृतिपुरुषयोर्यदन्तरं विवेकस्तस्य ज्ञानात्पुरुषस्य यः प्रकृते वियोगो भवति, स मोक्षः । तथाहि
" शुद्ध चेतन्यरूपोऽयं पुरुषः परमार्थतः । प्रकृत्यन्तरमज्ञात्वा मोहात्संसारमाश्रितः ॥ १॥"
ततः प्रकृतेः सुखदुःखमोहस्वभावाया यावन्न विवेकेन ग्रहणं तावन्न मोक्षः, प्रकृतेविवेकदर्शने तु प्रवृत्तेरुपरतायां प्रकृतौ पुरुषस्य स्वरूपेणावस्थानं मोक्ष इति । मोक्षश्च बन्धविच्छेदाद्भवति,
पर चलने की ताकत न होनेसे पड़ा हूँ, तुम चल तो सकते हो पर देख नहीं पाते' यह सुनते ही अन्धा खुशीके मारे उछल पड़ा और बोला – 'अरे, बड़ा अच्छा हुआ, मैं अपने कन्धेपर तुम्हें बैठा लेता हूँ, बस हम तुम दोनोंका काम चल जायगा।' इस तरह अन्धेने लंगड़ेको द्रष्टा होनेके कारण अपने कन्धे पर बिठाया और अन्धा उसे देश-देश में घुमाने लगा । लँगड़ा नगर में पहुँचा। वहाँ वह नाटक देखकर, गाना सुनकर तथा अन्य इन्द्रियोंके विषयों का यथेष्ट अनुभवन कर जिस प्रकार खुश होता है कि इसी तरह क्रियाशक्तिसे विकल-अकर्ता शुद्ध चैतन्य स्वरूपी यह लँगड़ा पुरुष अन्धे के समान सक्रिय सब कुछ करने धरनेवाली जड़ प्रकृतिके कन्धेपर चढ़कर अर्थात् प्रकृतिका संसर्ग पाकर बुद्धिके द्वारा अध्यवसित शब्दादि विषयोंको, जो अपने स्वच्छ स्वरूप में प्रतिबिम्बित हो रहे हैं, अनुभव करता हुआ खुश हो रहा है । और इस खुशी में वह अज्ञानके कारण प्रकृतिको ही सुखरूप मान बैठता है और इसीलिए उस अन्धी प्रकृतिके कन्धेपर चढ़ा हुआ संसार - परिभ्रमण करता रहता है । जैसे कि लंगड़ा अन्धे पुरुषके संसर्गको सुखरूप मान उसे कभी भी नहीं छोड़ना चाहता उसी तरह पुरुष भी प्रकृतिसंसर्ग को हो सब कुछ मानकर मोहके कारण उसे छोड़ना नहीं चाहता और संसार में रहता है ।। ४२ ।।
$ २७. तब पुरुष की मुक्ति कैसे होगी ? इसका उत्तर देते हैं
प्रकृति के वियोगका नाम मोक्ष है । यह प्रकृति तथा पुरुष में भेद विज्ञान रूप तत्त्वज्ञान से होता है । सांख्यमतमें प्रत्यक्ष, अनुमान तथा आगम ये तीन प्रमाण हैं ॥ ४३ ॥
$ २८. 'बत' शब्द पूछनेवालेका ध्यान खींचने के लिए है । प्रकृति और पुरुष में भेदज्ञान होने से जो प्रकृतिका वियोग होता है वही मोक्ष है । जैसे- "यह पुरुष वस्तुतः शुद्ध चैतन्य रूप है ।
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१. पश्यन्नसि म. १, २, प. १, २ ।
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