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________________ १५२ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ४१. ६२४ - ___"बुद्धिश्चाचेतनापि चिच्छक्तिसंनिधानाच्चेतनावतीवावभासते" इति । २४. पुमानित्यत्र जात्यपेक्षयैकवचनम्, तेनात्माऽनेकोऽभ्युपगन्तव्यः, जन्ममरणकरणानां नियमदर्शनाद्धर्मादिप्रवृत्तिनानात्वाच्च । ते च सर्वेऽप्यात्मनः सर्वगता नित्याश्वावसेयाः। उक्तं च "अमूर्तश्चेतनो भोगी नित्यः सर्वगतोऽक्रियः। अकर्ता निर्गुणः सूक्ष्म आत्मा कापिलदर्शने ॥१॥” इति ॥४१॥ $२५. तत्त्वान्युपसंहरन्नाह पञ्चविंशतितत्त्वानि संख्ययैवं भवन्ति च । प्रधाननरयोश्चात्र वृत्तिः पङ्ग्वन्धयोरिवं ॥४२॥ २६. व्याख्या-चकारो भिन्नक्रमः, एवं च संख्यया पञ्चविंशतितत्त्वानि भवन्ति । ननु प्रकृतिपुरुषावुभावपि सर्वगतो मिथःसंयुक्तौ कथं वर्तेते इत्याशङ्क्याह-'प्रधानत्यादि'। प्रधानपुरुषयोश्चात्र विश्वे पङ्ग्वन्धयोरिव वृत्तिवर्तनम् । यथा कश्चिदन्धः सार्थेन समं पाटलिपुत्रनगरं प्रस्थितः, स सार्थश्चौरैरभिहतः। अन्धस्तत्रैव रहित इतश्चेतश्च धावन् वनान्तरपङ्गना दृष्टोऽभि. हितश्च 'भो भो अन्ध मा भैषीः, अहं पङ्गुर्गमनाविक्रियाविकलत्वेनाक्रियश्चक्षुया सर्व पश्यन्नस्मि, प्रत्ययको देखनेके कारण ही वह अतदात्मक अर्थात् ज्ञातृत्वादि धर्मोसे शून्य होकर भी तदात्मक अर्थात् बुद्धयात्मक ज्ञाता आदि रूपसे प्रतिभासित होने लगता है।" बुद्धि स्वयं अचेतन है, परन्तु पुरुषको चैतन्यशक्तिका सन्निधान होनेसे चेतनावाली मालूम होने लगती है।" २४. श्लोकमें 'पुमान्' इस एकवचनका प्रयोग पुरुषत्व जातिकी अपेक्षासे है। व्यक्तिरूपसे तो पुरुष अनेक हैं। एक पुरुष उत्पन्न होता है उसी समय दूसरा मरता है, हरएककी बुद्धि आदि जुदी-जुदी हैं, एक सुखी है तो दूसरा दुःखी देखा जाता है, इत्यादि प्रतिनियत पुण्य-पाप आदि की व्यवस्थासे स्पष्ट मालूम होता है कि पुरुष अनेक हैं, एक नहीं। ये सभी आत्मा सर्वगत तथा नित्य हैं। कहा भी है-"सांख्य दर्शनमें आत्मा अमूर्त है, चेतन, भोक्ता, नित्य, सर्वगत, निष्क्रिय, अकर्ता, निर्गुण तथा सूक्ष्म है।" इति ॥४१॥ ६२५. अब तत्त्वनिरूपणका उपसंहार करते हैं इस प्रकार गिनती करनेपर कुल पचीस तत्त्व होते हैं। प्रधान और पुरुष दोनोंका सम्बन्ध तो अन्धे और लंगड़े जैसा है ॥४२॥ चकार भिन्नक्रम है। अतः ‘एवं' के बाद उसका अन्वय होता है। इस तरह संख्यासे अर्थात् गिनती करनेपर पचीस तत्त्व होते हैं। __ शंका-प्रकृति और पुरुष दोनों हो सर्वगत हैं अतः वे परस्पर संयुक्त होकर किस ढंगसे रहते हैं ? समाधान-इस विश्वमें प्रधान और पुरुषका संयोग तो अन्धे और लँगड़ेके समान है। जैसे-एक अन्धा सार्थ-व्यापारी यात्रीके साथ पाटलिपुत्र-पटनेकी ओर रवाना हुआ। मार्ग बीहड़ था। लुटेरोंने सार्थको मार डाला। बेचारा अन्धा अपने साथीके वियोगसे तथा मार्ग नहीं सूझनेके कारण विकल हो उस भयानक जंगलमें इधर-उधर भटकने लगा। वहीं एक लंगड़ा दृष्टि सम्पन्न होकर भी चलनेकी शक्ति न होनेके कारण पड़ा हुआ था। उसने उस भटकते हुए अन्धेको देखकर कहा-'हे भाई अन्धे, मत डरो, मैं कहता हूँ सो सुनो, मैं लंगड़ा हूँ सब कुछ देखता हूँ १. ते सर्वे-भ. २। २. "पुरुषस्य दर्शनार्थं कैवल्यार्थं तथा प्रधानस्य । पङ्ग्वन्धवदुभयोरपि संयोगस्तत्कृतः सर्गः ॥"-सांख्य. का. २१ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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