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________________ - का० ४१. १२३ ] सांख्यमतम् । यथा जपाकुसुमादिसंनिधानवशात्स्फटिके रक्ततादि व्यपदिश्यते, तथा 'प्रकृत्युपधानवत्त्वात्सुखदुःखाद्यात्मकानामर्थानां पुरुषस्य भोजकत्वं युक्तमेव व्यपदिश्यते । वाद महार्णवोऽप्याह—“बुद्धिदर्पण संक्रान्तमर्थ प्रतिबिम्बकं द्वितीयदर्पणकल्पे पुंस्यध्यारोहति, तदेव भोक्तृत्वमस्य, न त्वात्मनो विकारापत्तिः ।" [ ] इति तथा चासुरि: "विविक्ते दृक्परिणती बुद्धो भोगोऽस्य कथ्यते । प्रतिबिम्बोदयः स्वच्छे यथा चन्द्रमसोऽम्भसि || १ || " व (विन्ध्यवासी त्वेवं भोगमाचष्टे - "पुरुषोऽविकृतात्मैव स्वनिर्भासमचेतनम् । मनः करोति सांनिध्यादुपाधिः (धेः) स्फटिकं यथा || २ ||" इति । $ २३. तथा नित्या या चिच्चेतना तयाभ्युपेतः, एतेन पुरुषस्य चैतन्यमेव स्वरूपं, न तु ज्ञानं, ज्ञानस्थ बुद्धिधर्मत्वादित्यावेदितं द्रष्टव्यम् । केवलमात्मा स्वं बुद्धेरव्यतिरिक्तमभिमन्यते, सुखदुःखादयश्च विषया इन्द्रियद्वारेण बुद्धौ संक्रामन्ति, बुद्धिश्चोभयमुखदर्पणाकारा, ततस्तस्यां चैतन्यशक्तिः प्रतिबिम्बते, ततः सुख्यहं दुःख्यहं ज्ञाताहमित्युपचर्यते । आह च पतञ्जलि: १५१ - "शुद्धोऽपि पुरुषः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति, तमनुपश्यन्नतदात्मापि तदात्मक इव प्रतिभासते " [ योगभा. २।२० ] इति । आये हुए पदार्थोंके प्रतिबिम्बका स्वच्छ पुरुषरूपी द्वितीय दर्पण में प्रतिफलित होना - झलकना ही सुख-दुःखादिका भोग है तथा उस प्रतिबिम्बका पड़ना ही पुरुषका भोक्तृत्व है । इस प्रतिबिम्बप्रतिफलनरूप भोगको छोड़कर आत्मामें कोई दूसरे प्रकारका भोक्तृत्व नहीं है । आत्मामें किसी भी तरह इसके कारण विकार नहीं होता ।" आसुरि आचार्यंने भी कहा है कि - " जिस प्रकार स्वच्छ जल में चन्द्रमा प्रतिबिम्बका उदय होता है उसी तरह बुद्धिसे भिन्न चैतन्यका बुद्धि में प्रतिबिम्ब पड़ना ही भोग है । चन्द्रका प्रतिबिम्ब जैसे जलका ही विकार है चन्द्रमाका नहीं है उसी प्रकार बुद्धि पड़ा हुआ पुरुषका प्रतिबिम्ब भी बुद्धिका ही विकार है आत्माका नहीं । यही आत्मा का भोग है ।" Jain Education International विन्ध्यवासीने तो भोगका स्वरूप इस प्रकार बताया है - " पुरुष तो स्वरूपसे सर्वथा अविकारी है, परन्तु अचेतन मन संसर्गके कारण पुरुष के स्वच्छस्वरूपमें प्रतिफलित होकर उसे अपने कारवाला बना देता है। जैसे कि - जपाकुसुम आदि उपाधियां स्वच्छस्फटिकको अपने समान लाल, नीला या पीला बना देती हैं ।" $ २३. नित्य चेतनत्व ही पुरुषका यथार्थ स्वरूप है । इस विशेषण से यह स्पष्ट सूचित होता है कि- चैतन्य ही पुरुषका स्वरूप है, ज्ञान नहीं । ज्ञान तो बुद्धिका धर्म है। हां, आत्मा अपने से सर्वथा भिन्नकी भी बुद्धिको अभिन्न अवश्य मान बैठता है। सुख-दुःख आदि विषय इन्द्रियोंके द्वारा बुद्धि तक आते हैं, बुद्धि उभयतः पारदर्शी दर्पण के समान है । अतः उसमें जिस प्रकार एक ओर सुख-दुःखादिका प्रतिबिम्ब पड़ता है उसी तरह उसमें दूसरी ओर पुरुषके चैतन्यका भी प्रतिबिम्ब पड़ता है। बस, बुद्धिरूपी माध्यममें चैतन्य और विषयका युगपत् प्रतिबिम्ब पड़ने से ही पुरुष अपनेको 'मैं ज्ञाता हूँ, मैं भोक्ता हूँ' आदि मानने लगता है। पतंजलिने भी कहा है कि - "पुरुष तो सर्वतः शुद्ध है, वह बौद्ध-बुद्धि सम्बन्धी प्रत्यय अर्थात् ज्ञानवृत्तिको देखता है। उस बुद्धि सम्बन्धी १. प्रकृतिप्रधा - म २ । २. न ह्यात्म - भ. २ । ३ प्रतिबिम्बति — भ. २ । ४. " शुद्धोऽप्यो प्रत्ययानुपश्यो यतः प्रत्ययं बौद्धमनुपश्यति, तमनुपश्यन्नदात्मापि तदात्मक इव प्रत्यवभासते ।” -यो. मा. २।२० । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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