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________________ -का० ४३.६३१] सांख्यमतम् । १५५ नवरममी बन्धमोक्षसंसाराः पुरुषे उपचर्यन्ते । यथा जयपराजयौ भृत्यगतावपि स्वामिन्युप. चर्येते तत्फलस्य कोशलाभादेः स्वामिनि संबन्धात्, तथा भोगापवर्गयोः प्रकृतिगतयोरपि विवेकाग्रहात्पुरुष संबन्ध इति ॥ ३०. अत्र प्रमाणस्य सामान्यलक्षणमुच्यते-'अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम्' इति । अथोत्तरार्धे मानत्रितयं च-प्रमाणत्रितयं च, अत्र-सांख्यमते । किं तदित्याह-प्रत्यक्ष-प्रतीतं, लैङ्ग-अनुमानं, शाब्द-चागमः। चकारोऽत्रापि संबन्धनीयः । तत्र प्रत्यक्षलक्षणमाख्यायते-'श्रोत्रादिवृत्तिरविकल्पिका प्रत्यक्षम्' इति । 'श्रोत्रं त्वक् चक्षुषी जिह्वा नासिका चेति पञ्चमी' इति । श्रोत्रादीनीन्द्रियाणि तेषां वृत्तिर्वर्तनं परिणाम इति यावत्, इन्द्रियाण्येव विषयाकारपरिणतानि प्रत्यक्षमिति हि तेषां सिद्धान्तः । अविकल्पिका नामजात्यादिकल्पनारहिता शाक्यमताध्यक्षवद्व्याख्येयेति । $३१. ईश्वरकृष्णस्तु "प्रतिनियताध्यवसायः श्रोत्रादिसमुत्थोऽध्यक्षम्" इति प्राह ।' मुक्त होता है और न उसे संसार ही होता है। यह सब स्वांग तो बहुरूपिणी प्रकृति ही भरा करती है। वही बंधती है, छूटती है तथा संसारमें परिभ्रमण करती है ॥” इतना अवश्य है कि प्रकृतिमें होनेवाले ये बन्धादि पुरुषमें उपचरित होते हैं। जैसे सैनिकोंका जय या पराजय स्वामोका ही जय और पराजय माना जाता है क्योंकि जय-पराजयके फलस्वरूप धनादिकी प्राप्ति आदि राजाको ही होती है उसी तरह भोग और अपवर्ग दोनों ही यद्यपि प्रकृतिगत हैं परन्तु विवेक अर्थात् भेदज्ञान न होने से भोक्ता पुरुषके कहे जाते हैं और इसीलिए पुरुषमें संसारी तथा मुक्त ये व्यपदेश होते हैं। ३०. अब सांख्यों की प्रमाणचर्चा प्रारम्भ करते हैं । अर्थोपलब्धिमें जो साधकतम कारण होता है उसे प्रमाण कहते हैं । श्लोकके उत्तरार्धमें सांख्योंके तीन प्रमाणोंका निर्देश किया है। १ प्रत्यक्ष, २ लैङ्ग-लिङ्गसे होनेवाला अनुमान, ३ आगम । निविकल्पक श्रोत्रादिकी वृत्तिको प्रत्यक्ष कहते हैं। श्रोत्र, स्पर्शन, आँखें, जीभ तथा नाक ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। श्रोत्रादि इन्द्रियोंको वृत्ति-परिणमन व्यापारको श्रोत्रादिवृत्ति कहते हैं। सांख्य विषयाकार परिणत इन्द्रियोंको ही प्रत्यक्ष प्रमाण मानते हैं। नाम-जाति आदिकी कल्पनासे रहित वृत्ति निर्विकल्पक है। इस निर्विकल्पकका व्याख्यान बौद्ध-दर्शनमें किये गये प्रत्यक्षके व्याख्यानकी तरह समझ लेना चाहिए। ६३१. ईश्वरकृष्णने प्रत्यक्षका लक्षण इस प्रकार किया है-"प्रत्येक विषयके प्रति इन्द्रियोंके अध्यवसाय व्यापारको दृष्ट-प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं।" १. "तावेतो भोगापवर्गों बुद्धिकृतो बुद्धावेव वर्तमानौ कथं पुरुषे व्यपदिश्यते इति । यथा विजयः पराजयो वा योद्धृषु वर्तमानः स्वामिनि व्यपदियश्ते सहि तस्य फलस्य भोक्तेति, एवं बन्धमोक्षौ बुद्धावेव वर्तमानी परुष व्यपदिश्यते।"-यो. भा. २०१८। २. "इन्द्रियप्रणालिकया चित्तस्य बाह्यवस्तूपरागात तद्विषया सामान्य विशेषात्मनोऽर्थस्य विशेषावधारणप्रधाना वृत्तिः प्रत्यक्षम् ।"-योगसू. व्यासमा. पृ. ७ । "कापिलास्तु श्रोत्रादिवृत्तेः प्रत्यक्षत्वमिच्छन्ति ।"."-प्रमाणसमु. पृ. ६४ । न्यायवा. पृ. ४३। “वार्षगण्यस्यापि लक्षणमयुक्तमित्याह-श्रोत्रादिवृत्तिरिति ।" -न्यायवा. ता. टी. पृ. १५५ । न्यायमं, प. १००। तखोप.६५। ३.-क्षमतिवव्याख्येयेति ईश्व-म. १, प., । -क्षमितिवव्याख्येयेति ईश्व- भ.। ४. प्रतिबिम्बकताध्यव-भ. ३। ५. "प्रतिविषयाध्यवसायो दृष्टम्"-सांख्यका.५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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