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- का० ४१. $२० ]
सांख्यमतम् ।
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"स्वरूपादुभ्रश्यन्त्यनित्यत्वात् । प्रकृतिस्त्वविकृता नित्याभ्युपगम्यते । ततो न कदाचिदपि स स्वस्वरूपाद् भ्रश्यति । तथा च महदादिकस्य प्रकृतेश्च स्वरूपं सांख्यैरित्थमूचे | " हेतुमदनित्यमव्यापि सक्रियमनेकमाश्रितं लिङ्गम् ।
सावयवं परतन्त्रं, व्यक्तं विपरीतमव्यक्तम् ||२||" [ सांख्यका. २० ] इति । $ २०, तत्र हेतुमत्कारणवन्महदादिकम् अनित्यमित्युत्पत्तिधर्मकत्वाद्बुद्ध्यादेः, अध्यापीति प्रतिनियतं न सर्वगं सक्रियमिति सह क्रियाभिरध्यवसायादिभिर्वर्तत इति सक्रियं - सव्यापारं संचरणक्रियावदिति यावत्, अनेकमिति त्रयोविंशतिभेदात्मकं, आश्रित मित्यात्मोपकारकत्वेन प्रधानमवलम्ब्य स्थितं, लिङ्गमिति यद्यस्मादुत्पन्नं तत्तस्मिन्नेव लयं क्षयं गच्छतीति लिङ्गम् । तत्र भूतानि तन्मात्रेषु लीयन्ते, तन्मात्राणीन्द्रियाणि मनश्चाहंकारे, स च बुद्धौ सा चाव्यक्ते, तच्चानुत्पाद्यत्वान्न क्वचित्प्रलीयते । सावयवमिति शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मकैरवयवैर्युक्तत्वात्, परतन्त्रमिति कारणायत्तत्वादित्येवंरूपं व्यक्तं महदादिकम् । अव्यक्तं तु प्रकृत्याख्यम्, एतद्विपरीतमिति । तत्र विपरीतता सुयोज्यैव । नवरं प्रधानं दिवि मुव्यन्तरिक्षे च सर्वत्र व्यापितया वर्तत इति व्यापित्वं तस्य, तथाव्यक्तस्य व्यापकत्वेन संचरणरूपायाः क्रियाया अभावान्निष्क्रियत्वं च. द्रष्टव्यमिति विङ्मात्रमिदं दर्शितम् । विशेषव्याख्यानं तु सांख्य सप्तत्या देस्तच्छास्त्रादवसेयमिति ।
होने के कारण ये अनित्य हैं । प्रकृति तो कभी भी विकार - कार्यरूप नहीं होती, प्रकृति तो सदा प्रकृति अर्थात् कारण ही बनी रहती है अतः यह नित्य है । वह कभी भी अपने प्रकृति स्वरूपसे च्युत नहीं होती । महदादिक व्यक्त तथा प्रकृतिका स्वरूप सांख्योंने इस प्रकार कहा है - "व्यक्तकार्य हेतुमत्-सकारण, अनित्य, अव्यापि, सक्रिय, अनेक, आश्रित - कारणाश्रित, लिङ्ग - कारण में लीन होनेवाला, सावयव तथा परतन्त्र होता है । अव्यक्त कारण इससे विपरीत होता है ।"
२०. महदादि व्यक्त सकारण हैं कारणोंसे उत्पन्न होते हैं, उत्पन्न होनेके कारण ही अनित्य हैं, अव्यापि - प्रतिनियत देशवर्ती हैं, सर्वगत नहीं हैं, सक्रिय-अध्यवसाय आदि क्रियाओंको करने के कारण सव्यापार संचरण हैं, आदि क्रियाएँ करते हैं । तेईस भेदरूप होनेसे अनेक हैं, आश्रित भोग में निमित्त होनेके कारण आत्माके उपकारक होनेसे प्रधानरूप कारणके आधीन हैं । लिङ्गजो जिससे उत्पन्न होता है वह प्रलयकालमें उसीमें लीन हो जाता है अतः ये लयं गच्छति - कारण - में लीन होनेके कारण लिंग रूप हैं । लयका क्रम इस प्रकार है-महाभूत अपने कारणरूप तन्मात्राओं में लीन होते हैं । तन्मात्राएँ, दस इन्द्रियां और मन ये सोलहगण अपने कारण अहंकार में लीन हो जाते हैं । अहंकार महान् - बुद्धिमें तथा बुद्धि अव्यक्त - प्रकृतिमें लीन हो जाती है । प्रकृति स्वयं किसीसे उत्पन्न नहीं हुई अतः उसका कहीं भी लय नहीं होता । व्यक्त सावयव - शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्धादि अवयवोंसे युक्त होता है, परतन्त्र कारणोंके आधीन रहता है । महदादि व्यक्तपूर्वोक्त हेतुमत्त्व आदि धर्मोवाला है। अव्यक्त - प्रकृति ठीक इससे उलटी है, वह किसीसे उत्पन्न नहीं होती है, नित्य है, व्यापी है, निष्क्रिय है, एक है, अनाश्रित है, किसी में लीन नहीं होने से अलिंग है, निरवयव है, तथा स्वतन्त्र है । प्रधान स्वर्ग आकाश पृथिवी आदि सभी स्थानोंमें व्यापीरूपसे रहता है इसलिए वह सर्वगत अव्यक्त - प्रधान सर्वव्यापी होनेसे उसमें कोई संचरण आदि क्रियाएँ भी नहीं हो सकतीं इसीलिए वह निष्क्रिय है। यहां तो इनका संक्षिप्त स्वरूप ही दिखाया गया मात्र दिशासूचन किया है । इनका विशेष व्याख्यान तो सांख्यसप्तति आदि सांख्यशास्त्रोंसे जान लेना चाहिए ।
१. - ति स्वस्वरू- भा. । २. सा स्वरूपामा २, प. २ । ३. तेः स्वस्व - म. २ । ४. -द् बुद्ध्यादिवत् अव्या - म २ । ५. विलयं भ. २ ।
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