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________________ १४८ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ४१. ६ १७गन्धतन्मात्रात्पृथिवी समुत्पद्यते, स्वराच्छन्दतन्मात्रादाकाशमुद्भवति, तथा स्पर्शतन्मात्राद्वायुः प्रादुर्भवति, एवं च पञ्चभ्यस्तन्मात्रेभ्यो भूतपञ्चकं भवतीति ॥४०॥ एवं चतुर्विंशतितत्त्वरूपं निवेदितं सांख्यमते प्रधानम् ।। अन्यस्त्वकर्ता विगुणश्च भोक्ता तत्वं पुमानित्यचिदभ्युपेतः ॥४१॥ ..$ १७. व्याख्या-एवममुनोक्तप्रकारेण सांख्यमते चतुर्विशतितत्त्वरूपं प्रधानम् । प्रकृतिमहानहंकारश्चेति त्रयं पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि, पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, मनश्चैक, पञ्च तन्मात्राणि, पञ्च भूतानि चेति चतुविशतितत्त्वानि रूपं स्वरूपं यस्य तच्चतुविशतितत्त्वरूपं प्रधानं प्रकृतिनिवेदि. तम् । तथा चोक्तम् "प्रकृतेमहांस्ततोऽहंकारस्तस्माद् गणश्च षोडशकः । तस्मादपि षोडशकात्पञ्चभ्यः पञ्च भूतानि ॥" [ सांख्यका. ३३ ] इति । १८. अत्र प्रकृतिनं विकारः, अनुत्पन्नत्वात् । बुद्धचादयश्च सप्त परेषां कारणतया प्रकृतयः, कार्यतया च विकृतय उच्यन्ते । षोडशकश्च गणो विकृतिरेव कार्यत्वात् । पुरुषस्तु न प्रकृतिर्न विकृतिः, अनुत्पादकत्वादनुत्पन्नत्वाच्च । तथा चेश्वरकृष्णः सांख्यसप्ततो "मूलप्रकृतिरविकृतिमहदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।।१।। [ सांख्यका. ३ ] इति । ६ १९. तथा महदादयः प्रकृतविकारास्ते च व्यक्ताः सन्तः पुनरव्यक्ता अपि भवन्तीति होता है । गन्धतन्मात्रासे पृथिवीकी समुत्पत्ति होती है। स्वरशब्दतन्मात्रासे आकाशका प्रादुर्भाव होता है । स्पर्शतन्मात्रासे वायुका जन्म होता है। इस प्रकार पाँच सूक्ष्म संज्ञक-तन्मात्राओंसे पांच स्थूल भूतोंकी उत्पत्ति होती है ।।४०॥ ___ इस प्रकार सांख्यमतमें चौबीस तत्त्वरूप प्रधान नामके मूलतत्त्वके स्वरूपका निरूपण किया गया है। प्रधानसे भिन्न पुरुषतत्त्व है। यह अकर्ता, निर्गुण, भोक्ता तथा नित्य चेतन है ॥४१॥ १७. इस तरह सांख्यमतमें प्रकृति आदि चौबीस तत्त्वरूपमें परिणत होनेवाला प्रधान तत्त्व है । स्वयं प्रकृति, महान् और अहंकार ये तीन, पांच बुद्धीन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन, प्रांच तन्मात्राएँ तथा पांच भूत ये चौबीस तत्व हैं, जिन रूपोंमें प्रधान अपना विस्तार दिखाता है। कहा भी है-"प्रकृतिसे महान्, महान्से अहंकार, अहंकारसे सोलहगण तथा सोलहगणके अन्तर्गत पांच तन्मात्राओंसे पांच महाभूत उत्पन्न होते हैं।" १८. इनमें प्रकृति किसीका विकार अर्थात् कार्य नहीं है, क्योंकि वह किसीसे उत्पन्न नहीं होती। महान् अहंकार और पांच तन्मात्राएं ये सात कार्यों के उत्पादक होनेसे प्रकृति अर्थात् कारणरूप हैं तथा कारणोंसे उत्पन्न कार्यरूप होनेसे विकृति भी है। सोलह गण मात्र विकृति-रूप ही हैं क्योंकि वे कार्य हैं । पुरुष तो न किसीको उत्पन्न करता है और न किसीसे उत्पन्न ही होता है अतः वह न प्रकृति-कारण है और न विकृति-कार्यरूप ही है। ईश्वरकृष्णने सांख्यसप्ततिमें कहा है-"मूलप्रकृति अविकृति अर्थात् अकार्य है, किसीसे उत्पन्न नहीं होती। महान् आदि सात कार्यरूप होनेसे विकृति हैं तथा उत्पादक होनेसे प्रकृतिरूप भी हैं। सोलह गण मात्र विकाररूप ही हैं । पर पुरुष न प्रकृति-कारण ही है और न विकृति-कार्यरूप ही।" इति । । १९. महान् आदि व्यक्त होकर भी अव्यक्त हो जाते हैं । इस तरह अपने स्वरूपसे च्युत १. "तस्माच्च विपर्यासात सिद्धं साक्षित्वमस्य पुरुषस्य । कैवल्यं माध्यस्थ्यं द्रष्ट्रत्वमकर्तभावश्च ।। -सां. का. १९ । २.-या वि-भ.।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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