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-का० ४०.६१६ ]
सांख्यमतम् ।
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कर्मकारणत्वात्कर्मेन्द्रियाणि च । कानि तानीत्याह-पायूपस्थवचःपाणिपादाख्यानि । तत्र पायुगुंद, उपस्थः-स्त्रीपुंश्चिह्नद्वयं, वचश्चेहोच्यतेऽनेनेति वचः, उरःकण्ठादिस्थानाष्टतया वचनमुच्चारयति, पाणी पादौ च प्रसिद्धौ, एतैर्मलोत्सर्गसंभोगवचनादानचलनादीनि कर्माणि सिध्यन्तीति कर्मेन्द्रियाण्युच्यन्ते । तथाशब्दः समुच्चये। एकादशं मनश्च, मनो हि बुद्धोन्द्रियमध्ये बुद्धीन्द्रियं भवति, कर्मेन्द्रियमध्ये कर्मेन्द्रियम्, तच्च तत्त्वार्थमन्तरेणापि संकल्पवृत्ति। तद्यथा-कश्चिद्वदुः शृणोति "नामान्तरे भोजनमस्ति" इति, तत्र तस्य संकल्पः स्यात् “तत्र यास्यामि तत्र चाहं कि गुडदधिरूपं भोजनं लप्स्य
वा किमपिन" इत्येवंरूपं मन इति। त दन्यान्यपराणि रूपादितन्म
नि पञ्चोत्पद्यन्ते । तत्र रूपतन्मात्रं शुक्लकृष्णादिरूपविशेषः, रसतन्मात्रं तिक्तादिरसविशेषः, गन्धतन्मात्र सुरभ्यादिगन्धविशेषः, शब्दतन्मात्रं मधुरादिशब्दविशेषः, स्पर्शतन्मात्रं मृदुकठिनादिस्पर्शविशेषः, इति षोडश । अयं षोडशको गण इत्यर्थः ॥३८-३९॥ $ १५. अथ तन्मात्रेभ्यः पञ्चभूतान्युत्पद्यन्त इत्याह
रूपात्तेजो रसादापो गन्धाद् भूमिः स्वरान्नमः ।
स्पर्शाद्वायुस्तथैवं च पञ्चभ्यो भूतपश्चकम् ॥४०॥ ६ १६. व्याख्या-रूपतन्मात्रात्सूक्ष्मसंज्ञात्तेजोऽग्निरुत्पद्यते, रसतन्मात्रादापो जलानि जायन्ते,
पदके आकर्षणके लिए है । ज्ञानेन्द्रियोंकी तरह कर्मेन्द्रियां भी पांच हैं। पायु-गुदा, उपस्थ-स्त्री और पुरुषके चिह्न अर्थात् योनि और लिङ्ग, वचन अर्थात् जिनके द्वारा वचनोंका उच्चारण होता है ऐसे हृदय कण्ठ आदि आठ स्थान, पाणि-हाथ और पाद-पैर ये पांच कर्मेन्द्रियां हैं । इनसे मलोत्सर्ग, मूत्रोत्सर्ग और सम्भोग, वचन, वस्तुओंका रखना-उठाना, तथा चलना आदि क्रियाएँ होती हैं, इसी लिए इन्हें कर्मेन्द्रियां कहते हैं । 'तथा' शब्द समुच्चयार्थक है । ग्यारहवां मन है। मन बुद्धीन्द्रियोंके साथ बुद्धीन्द्रियरूप तथा कर्मेन्द्रियोंके साथ कर्मेन्द्रिय रूप हो जाता है। यह मन वास्तविक अर्थकी स्थितिके बिना भी मात्र संकल्पात्मक होता है। जैसे-किसी बटुक-ब्राह्मण शिष्यने सुना कि'आज दूसरे गांवमें भोजनके लिए निमन्त्रण आया है' वह विचारता है कि-उस गांवमें जायेंगे, तो वहां गुड़ और दही दोनों मिलेंगे, या केवल दही, अथवा दही और गुड़ दोनों ही न मिलेंगे, ऐसे संकल्प भी मन कहलाता है। अहंकारसे रूपादि पांच सूक्ष्म संज्ञक तन्मात्राएँ उत्पन्न होती हैं। सफेद-काला आदि रूप विशेषको रूपतन्मात्रा कहते हैं. तीता-मीठा आदि रसको रसतन्मात्रा. सुगन्ध तथा दुर्गन्धको गन्धतन्मात्रा, मधुर आदि शब्दोंको शब्दतन्मात्रा तथा कोमल-कठिन आदि स्पर्शोको स्पर्शतन्मात्रा कहते हैं। इस तरह पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियां, मन तथा पांच तन्मात्राएं ये सोलहगण कहलाते हैं ॥३८-३९॥
१५. तन्मात्राओंसे पांच भूतोंकी उत्पत्तिका वर्णन करते हैं
रूपसे अग्नि, रससे जल, गन्धसे पृथिवी, शब्दसे आकाश तथा स्पर्शसे वायु इस प्रकार पाँच तन्मात्राओंसे पाँच भूतोंको उत्पत्ति होती है ॥४०॥
१६. सूक्ष्म संज्ञक रूप तन्मात्रासे अग्नि उत्पन्न होती है। रस तन्मात्रासे जलका आविर्भाव
१. -ष्टतयी वचन-आ. क.। २. -रूपाणि तन्मा-प. १, २, भ. १, २, क.। ३. “तत्र शब्दतन्मात्रादाकाशं, स्पर्शतन्मात्रा वायुः, रूपतन्मात्रात्तेजः, रसतन्मात्रादासः, गन्धतन्मात्रात्पृथिवी इत्यादिक्रमेण पूर्वपूर्वानुप्रवेशेनैकद्वित्रिचतुष्पञ्चगुणानि आकाशादिपृथ्वीपर्यन्तानि महाभूतानीति सृष्टिक्रमः ।" -सां. का. माठर. पृ. ३० ।
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