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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ३८.६ १२$१२. व्याख्या-ततः प्रकृतेर्बुद्धिः संजायत उत्पद्यते। सा च गवादौ पुरो दृश्यमाने गौरेवायं नाश्वः, स्थाणुरेवायं न पुरुष इति विषयनिश्चयाध्यवसायरूपा महानिति यका प्रोच्यते महदाख्यया याभिधीयते। बुद्धश्च तस्या अष्टौ रूपाणि । धर्मज्ञानवैराग्यैश्वर्यरूपाणि चत्वारि सात्त्विकानि, अधर्मादीनि तु तत्प्रतिपक्षभूतानि चत्वारि तामसानोति । ततोऽपि-बुद्धेरप्यहंकारः स्यात्उत्पद्यते । स च-'अहं सुभगः, अहं दर्शनीयः' इत्याद्यभिमानरूपः। तस्मात्-अहङ्कारात्षोडशको गण उत्पद्यते । षोडशसंख्यामानमस्य षोडशको गणः-समुदायः ॥३७॥ ६ १३. अथ षोडशसंख्यं गणं श्लोकद्वयेनाह *स्पर्शनं रसनं घ्राणं चक्षुः श्रोत्रं च पश्चमम् । पश्च बुद्धीन्द्रियाण्यत्र तथा कर्मेन्द्रियाणि च ॥३८॥ पायुपस्थवचःपाणिपादाख्यानि मनस्तथा । अन्यानि पञ्च रूपादितन्मात्राणीति षोडश ॥३९॥युग्मम्॥ १४. व्याख्या-स्पर्शनं-त्वक, रसनं-जिह्वा, घ्राणं-नासिका, चक्षुः-लोचनं, श्रोत्रं च श्रवणं पञ्चमम्-एतानि पञ्च बुद्धीन्द्रियाम्यत्र-षोडशके गणे भवन्ति । स्वं स्वं विषयं बुध्यन्त इति कृत्वेन्द्रियाण्येव बुद्धीन्द्रियाणि प्रोच्यन्ते । तथाहि--स्पर्शनं स्पर्शविषयं बुध्यते, एवं रसनं रस, घ्राणं गन्धं, चक्षू रूपं, श्रोत्रं च शब्दमिति । तथाशब्दः पञ्चेतिपदस्थानुकर्षणार्थः । पञ्चसंख्यानि इस प्रकृतिसे महान्-बुद्धि उत्पन्न होती है। बुद्धिसे अहंकार तथा अहंकारसे सोलहगणोंको उत्पत्ति होती है ॥३७॥ ६ १२. इस प्रकृतिसे बुद्धि उत्पन्न होती है। सामने दोखनेवाली गोमें 'यह गो ही है घोड़ा नहीं है' ठूठमें 'यह ढूंठ ही है पुरुष नहीं है' इस प्रकारके पदार्थोंका निश्चय करनेवाली बुद्धि ही महान् कही जाती है । 'महान्' यह बुद्धिका ही पर्यायवाची नाम है। इस बुद्धिके आठ रूप होते हैं । धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य ये चार सात्त्विक रूप हैं तथा अधर्म, अज्ञान, विषयाभिलाष और अनैश्वर्य ये चार तामस रूप हैं। इस बुद्धि-महत्तत्त्वसे 'मैं सुन्दर हूँ मुझे लोग बड़े चावसे देखते हैं-मैं दर्शनीय हूँ' इत्यादि अभिमान रूप अहंकार उत्पन्न होता है । अहंकारसे सोलहंगण सोलह पदार्थोंका समुदाय उत्पन्न होता है ॥३७॥ १३. इन सोलह गणोंका दो श्लोकोंमें वर्णन करते हैं___ स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु और धोत्र ये बुद्धीन्द्रियाँ, मलस्थान, मूत्रस्थान, वचनके उच्चारण करनेके स्थान, हाथ और पैर ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ, मन तथा रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द ये पाँच तन्मात्राएँ ये सब मिलकर सोलह गण हैं ॥३८-३९॥ १४. सोलह गणमें स्पर्शन-त्वचा सारा शरीर, रसन-जीभ, घ्राण-नाक, चक्षु-नेत्र, श्रोत्र-कान, ये पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं। इनके द्वारा अपने-अपने स्पर्श आदि विषयोंका बोध होता है अतः इन्हें बुद्धीन्द्रिय या ज्ञानेन्द्रिय कहते हैं। जैसे-स्पर्शनेन्द्रियसे स्पर्शका, रसनेन्द्रियसे रसका, नाकसे गन्धका, नेत्रसे रूपका तथा कानसे शब्दका परिज्ञान होता है। 'तथा' शब्द 'पंच' १. "अध्यवसायो बुद्धिर्धर्मो ज्ञानं विराग ऐश्वर्यम् । सात्त्विकमेतद्रूपं तामसमस्माद्विपर्यस्तम् ॥"--सां. का. २३ । २. "अभिमानोऽहंकारस्तस्माद् द्विविधः प्रवर्तते सर्गः । ऐन्द्रिय एकादशकस्तन्मात्रपञ्चकश्चैव ॥" -सां. का. २४ । ३. “बुद्धीन्द्रियाणि श्रोत्रत्वक्वक्षरसननासिकाख्यानि । वामाणिपायपस्थान् कर्मेन्द्रियाण्याहः ॥ उभयात्मकमत्र मनः संकल्पकमिन्द्रियं च साधम्र्यात् । गुणपरिणामविशेषान्नानात्वं ग्राह्यभेदाच्च ।"-सां. का. २६।२७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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