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________________ १४४ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ३५६९कार्यैः सत्त्वादीनि जायन्ते । तथाहि-लोके यः कश्चित्सुखमुपलभते स आर्जवमादवसत्यशौचही. बुद्धिक्षमानुकम्पाप्रसादादिस्थानं भवति, तत्सत्त्वम् । यः कश्चिदुःखमुपलभते, स तदा द्वेषद्रोहमत्सरनिन्दावञ्चनबन्धनतापादिस्थानं भवति, तद्रजः। यः कंचित्कदापि मोहं लभते, सोऽज्ञानम. दालस्यभयदैन्याकर्मण्यतानास्तिकताविषादोन्मादस्वप्नादिस्थानं भवति, तत्तम इति । ...६९. सत्त्वादिभिश्च परस्परोपकारिभित्रिभिरपि गुणैः सर्व जगद्व्याप्तं विद्यते, परमूवं. लोके प्रायो देवेषु सत्त्वस्य बहुलता, अधोलोके तिर्यक्षु नारकेषु च तमोबहुलता, मध्यलोके मनुष्येषु रजोबहुलता, यदुःखप्राया मनुष्या भवन्ति । तदुक्तम् "ऊवं सत्त्वविशालस्तमोविशालश्च मूलतः सर्गः। मध्ये रजोविशालो ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्तः॥१॥ [ सांख्यका. ५४ ] अत्र ब्रह्मादिस्तम्बपर्यन्त इति ब्रह्मादिपिशाचान्तोऽष्टविधः सर्ग इति ॥३५॥ साफ-सुथरा पवित्र रहना, लोकलाज, बुद्धि-हेयोपादेय विवेक, क्षमा, अनुकम्पा-दूसरेको दुःखी देखकर हृदयका कप जाना-दयालुता, और प्रसन्नता आदिका स्थान होता है। यही तो सात्त्विक अर्थात् सत्त्व गुणप्रधान पुरुषकी पहचान है। लोकमें जो दुःखी होता है उसके मनमें सदा द्वेष, वैर, मत्सर-ईर्षा, निन्दा, ठगना, दूसरेको बन्धन-झगड़ेमें फंसाना, दूसरेके अभ्युदयमें जलना आदि विकार उत्पन्न होते रहते हैं। इन्हीं सब बातोंसे रजोगुणप्रधान राजस पुरुषका परिचय मिलता है। जो व्यक्ति मोही-अज्ञानी होता है वह अज्ञान, घमण्ड, आलस्य, भय, दीनता, अकर्मण्यता, नास्तिकता, धर्म-कर्मसे विमुख होना, विषाद, उन्माद, भीषण स्वप्न आना आदि तामस भावोंका आधार होता है । तामस पुरुष इन्हीं कारणोंसे पहचाना जाता है। ६९. एक दूसरेका उपकार करनेवाले परस्पर सापेक्ष इन सत्त्वादि तीन गुणोंसे समस्त जगत् व्याप्त है। परन्तु इतनी विशेषता है कि कहीं सत्त्वगुणकी प्रधानता है तो कहीं रजोगुणको तथा कहीं तमोगुणकी। एककी प्रधानतामें दूसरे गुण गौणरूपसे रहते हैं यही इनकी परस्परोपकारिता है। ऊध्वंलोकमें देवोंमें प्रायः सत्त्वगुणकी बहुलता रहती है। अधोलोकमें तियंच, तथा नारको जीवोंमें तमोगुणको प्रचुरता पायी जाती है। मध्यलोकमें मनुष्योंमें रजोगुणकी प्रधानता देखी जाती है। इसीसे मनुष्य प्रायः दुःखी ही अधिक होते हैं। कहा भी है-"ब्रह्मसे लेकर स्तम्बस्थावर पर्यन्त यह समस्त सृष्टि ऊर्वलोकमें उत्कृष्ट चैतन्य देवोंमें सत्त्वगुण प्रधान, मूल-अधोलोकमें अपकृष्ट चैतन्य वाले पशु आदिमें तमोबहुल तथा मध्यलोकमें मध्यम चैतन्ययुक्त मनुष्यादि में रजःप्रधान है। ब्रह्मसे स्तम्भ-स्थावर पर्यन्त समस्त सृष्टिमें ब्राह्म, प्राजापत्य, ऐन्द्र, पैत्र, गान्धर्व, यक्ष, राक्षस तथा पैशाच यह आठ प्रकारकी देवी सृष्टि है। १.यो हि कश्चित् क्वचित् प्रीति लभते तत्र आर्जवमार्दवसत्यशौचहीबुद्धिक्षमानुकम्माज्ञानादि च । तत्सत्त्वं प्रत्येतव्यम् । अप्रीत्यात्मकं रजः । कस्मात् । दुःखलक्षणत्वात् । यो हि कश्चित्कदाचित् क्वचित् अप्रीतिमुपलभते तत्र द्वेषद्रोहमत्सरनिन्दास्तम्भोत्कण्ठानिकृतिवञ्चनाबन्धवधच्छेदनानि च । तद्रजः प्रत्येतव्यम । विषादात्मकं तमः । कस्मात् । मोहलक्षणत्वात् । यो हि कश्चित् कदाचित् क्वचित् मोहमुपलभते तत्र अज्ञानमदालस्य भयदैन्याकर्मण्यतानास्तिक्यविषादस्वप्नादि च तत्तमः प्रत्येतव्यम्।"-सा. का. माठर. पृ. २१ । सांख्यसं. ११। २. -च भी ब्रु-भ. ३। ३. -ता नरेषु रजो आ., क., प. १, २, भ..। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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