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________________ १४२ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ३४. १६ - सांख्या निरीश्वराः केचित्केचिदीश्वरदेवताः । सर्वेषामपि तेषां स्यात्तत्त्वानां पञ्चविंशतिः ॥ ३४॥ ६६. व्याख्या - के चित्सांख्या निर्गत ईश्वरो येभ्यस्ते निरीश्वराः, केवलाध्यात्मक मानिनः, केचिदीश्वरदेवताः - ईश्वरो देवता येषां ते तथा । तेषां सर्वेषामपि निरीश्वराणां सेश्वराणां चोभयेषामपि तत्त्वानां पञ्चविंशतिः स्यात् । सांख्यमते किल दुःखत्रयाभिहतस्य पुरुषस्य तदुपघातहेतुस्तस्वजिज्ञासोत्पद्यते । आध्यात्मिकमाधिदैविकमाधिभौतिकं चेति दुःखत्रयम् । अत्राध्यात्मिकं द्विविधम्, शारीरं मानसं च । तत्र वातपित्तश्लेष्मणां वैषम्यनिमित्तं यद्दुःखमात्मानं देहमधिकृत्य ज्वरातीसारादिसमुत्पद्यते तच्छारीरम्, मानसं च कामक्रोध लोभमोहेर्थ्याविषयादर्शननिबन्धनम् । सर्व चैतदान्तरोपायसाध्यत्वादाध्यात्मिकं दुःखम् । बाह्योपायसाध्यं दुःखं द्वेधा - आधिभौतिकमाधिदैविकं चेति । तत्राधिभौतिकं मानुषपशुपक्षिमृगसरीसृपस्थावर निमित्तम्, आधिदैविकं यक्षराक्षसग्रहाद्यावेशहेतुकम् । अनेन दुःखत्रयेण रजःपरिणामभेदेन बुद्धिवर्तिनाभिहतस्य प्राणिनस्तेवानां जिज्ञासा भवति दुःखविघाताय । तत्त्वानि च पञ्चविंशतिर्भवन्ति ॥ ३४ ॥ Jain Education International सांख्य दो प्रकारके हैं - एक तो निरीश्वर अर्थात् ईश्वरको नहीं मानने वाले तथा दूसरे ईश्वरको देवता माननेवाले । ये सभी सांख्य ( प्रकृति आदि ) पचीस तत्त्वोंको स्वीकार करते हैं ||३४|| ६. कुछ सांख्य ईश्वरको नहीं मानकर केवल अध्यात्मवादी हैं । कुछ सांख्य ईश्वरको ही देवता मानते हैं । सभी सेश्वरसांख्य तथा निरीश्वरसांख्य साधारणरूपसे पचीस तत्त्वोंको स्वीकार करते हैं । सांख्यमत में कहा है कि- पुरुष जब तीन प्रकारके दुःखोंसे अत्यन्त सन्तप्त हो जाता है, वह दुःखों के आघात से तिलमिला उठता है तब उसे स्वभावतः दुःखोंके दूर करने के उपायभूत तत्वोंके शरणकी इच्छा होती है । आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक ये तीन प्रकारके दुःख हैं । आध्यात्मिक दुःख में से कुछ शरीरसे सम्बन्ध रखते हैं तथा कुछ मनसे । वात, पित्त और कफ इन तीन दोषोंकी विषमतासे देहमें ज्वर, व्रतीसार आदि व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं । दैहिक व्याधियाँ हैं । काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या - इन व्याधियोंसे आत्माको जो दुःखबेचैनी होती है वह मानस - आध्यात्मिक दुःख है । ये दोनों दुःख भीतरी कारणोंसे उत्पन्न होने के कारण आध्यात्मिक कहे जाते हैं । अर्थात् वात-पित्तादिकी विषमता तथा मनके काम-क्रोधादि विकार बाहर से दिखाई नहीं देते, भीतर ही भीतर उत्पन्न हो जाते हैं अतः ये आध्यात्मिक दुःख हैं । बाह्य कारणोंसे होनेवाला दुःख आधिभौतिक तथा आधिदैविकके भेदसे दो प्रकारका है । मनुष्य, पशु, पक्षी, मृग, सर्प तथा वृक्षादि स्थावर - स्थितिशील प्राणियोंके निमित्त से होनेवाला दु:ख आधिभौतिक है । यक्ष, राक्षस तथा भूतादिके आवेशसे होनेवाला दुःख आधिदैविक कहलाता है । ये तीनों दुःख रजोगुणके परिणाम हैं । बुद्धि में होनेवाले इन दुःखोंसे जब प्राणी अच्छी तरह सताया जाता है वह इनके आघात को सहते-सहते घबड़ा जाता है तब उसे दुःखविघातके कारण भूत तत्त्वों की जिज्ञासा होती है । तत्त्व पचीस होते हैं । १. "दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदभिघातके हेती ।" -सां. का. । — कि पुनस्तदुःखत्रयम् ? तदाह - आध्यात्मिकम्, आधिभौतिकम्, आधिदैविकम् । तत्र प्रथमं द्विविधं शारीरं मानसं च । तत्र शारीरं वातपित्तश्लेष्मणां देहघातूनां वैषम्यात् यद् दुःखमात्मानं देहमधिकृत्य ज्वरातीसारादि प्रवर्तते । मानसं प्रियवियोगादप्रियसंयोगाच्च द्विविधम् । एतदाध्यात्मिकं दुःखमभिहितम् । आधिभौतिकं तु भूतान्यधिकृत्य यत्प्रवर्तते मानुषपशुपक्षिसरीसृपस्थावरनिमित्तम् । आधिदैविकं तु दिवमधिकृत्य यत्प्रवर्तते शीतोष्णवातवर्षादिकम् । एवमेतैस्त्रिभिर्दुःखैर भिहतस्यासुरिसगोत्रस्य ब्राह्मणस्य जिज्ञासा समुत्पन्ना ।" - सां. का. माठर. पु. ३ । २. तत्वजिज्ञा - म. २ । ३. नि पंच भ. २ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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