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अथ तृतीयोऽधिकारः
६१. अथादौ सांख्यमतप्रपन्नानां परिज्ञानाय लिङ्गादिकं निगद्यते। त्रिदण्डा एकदण्डा वा कौपीनवसना धातुरक्ताम्बराः शिखावन्तो जटिनः क्षुरमुण्डा मृगचर्मासना द्विजगृहाशनाः पञ्चग्रासोपरा वा द्वादशाक्षरजापिनः परिवाजकादयः। तद्भक्ता वन्दमाना ॐनमो नारायणायेति वदन्ति, ते तु नारायणाय नम इति प्राहुः । तेषां च महाभारते बीटेति ख्याता दारवी मुखवत्रिका मुखनिःश्वासनिरोधिका भूतानां दयानिमित्तं भवति । यदाहुस्ते "घ्राणादितोऽनुयातेन श्वासेनैकेन जन्तवः । हन्यन्ते शतशो ब्रह्मन्नणुमात्राक्षरवादिनाम् ॥१॥"
२. ते च जलजीवदयार्थ स्वयं गलनकं धारयन्ति, भक्तानां चोपविशन्ति । "षट्त्रिंशदङ्गलायामं विंशत्यङ्गुलविस्तृतम् । दृढं गलनकं कुर्याद्भूयो जीवान्विशोधयेत् ॥१॥ म्रियन्ते मिष्टतोयेन पूतराः क्षारसंभवाः । क्षारतोयेन तु परे न कुर्यात्संकरं ततः ॥२॥ लूतास्यतन्तुगलिते ये बिन्दी सन्ति जन्तवः। सूक्ष्मा भ्रमरमानास्ते नैव मान्ति त्रिविष्टपे ॥३॥" इति गलनकविचारो मीमांसायाम्।
१. अब सांख्य मतका परिज्ञान करने के लिए सांख्योंके लिंग, वेष आदिका निरूपण करते हैं। सांख्योंके परिव्राजक तीन दण्डोंके धारक या एक दण्डके धारी होते हैं। लंगोटी मात्रके पहननेवाले या गेरुसे रंगे हुए लाल वस्त्रोंको पहननेवाले होते हैं। सिरपर शिखा-चोटी रखनेवाले या जटाधारी होते हैं। छुरासे भी सिर मुड़ानेवाले होते हैं। मृगचर्मका आसन रखनेवाले, द्विजोंके घर भोजन करनेवाले, पांच ग्रास प्रमाण आहार करनेवाले, तथा द्वादशाक्षर मन्त्रको जपनेवाले होते हैं। भक्तलोग इन परिव्राजकोंकी वन्दना करते समय 'ओं नमो नारायणाय' कहते हैं। परिव्राजक 'नमो नारायणाय' कहकर आशीर्वाद देते हैं । ये दयालु परिव्राजक मुखकी उष्ण श्वाससे जीवोंकी रक्षा करनेके लिए एक दारवी-लकड़ीकी मुखवस्त्रिका रखते हैं। महाभारतमें इस मुखवस्त्रिकाको 'बीटा' कहा है। वे लोग कहते हैं कि-“हे ब्रह्मन्, एक ह्रस्व अक्षरको उच्चारण करनेके समय भी नाक आदिसे निकली हुई एक श्वाससे ही सैकड़ों जन्तुओं की हिंसा होती है।"
२: वे जलमें रहनेवाले जीवोंकी दया पालनके लिए स्वयं पानी छाननेका गलना-छन्ना रखते हैं तथा अपने भक्तोंको भी पानी छाननेका उपदेश देते हैं। कहा भी है-"छत्तीस अंगुल लम्बा, बाईस अंगुल चौड़ा दृढ़-मोटे गाढ़ेके गलने-छन्नेसे पानी छानना चाहिए। छानने के बाद भी जीवोंकी दयाकी ओर विशेष ध्यान रखना चाहिए।" मीठे कुंएके जलसे खारे कुंएके तथा खारे कुंएके जलसे मीठे कुंएके जलजीव मर जाते हैं अतः मीठे कुंएके पानीमें खारे कुंएका पानी तथा खारे कुंएके पानीमें मीठे कुंएका पानी नहीं मिलाना चाहिए ॥२॥ मकड़ीके मुंहसे निकले हुए सूक्ष्म लारबिन्दुके समान अत्यन्त सूक्ष्म जलकणमें इतने सूक्ष्मजीव रहते हैं कि यदि वे भौंरेके समान स्थूल हो जायें तो वे तीनों लोकोंमें भी नहीं समा सकते ॥" इस तरहके विचारसे पानी छाननेका विधान किया गया है।
१. -ग्रामीपरा भ. २। २. तद्भक्ता ॐ नमो नारायणायेति वदन्ति वन्दमानाः ते तु भ. १, २, प. १,२। ३. तु (चा) परे मा. ।
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