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________________ १३५ -का० ३२. ६ १२८] नैयायिकमतम्। . ६१२६. निग्रहप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणं' नाम निग्रहस्थानं भवति, पर्यनुयोज्यो नाम निग्रहोपपत्त्यावश्यं नोदनीय इदं ते निग्रहस्थानमुपनतमतो निगृहीतोऽसीति वचनीयः, तमुपेक्ष्य न निगृह्णाति यः स पर्यनुयोज्योपेक्षणेन निगृह्यते १९ । $ १२७. अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानानुयोगो निरनुयोज्यानुयोगो नाम निग्रहस्थानं भवति, उपपन्नवादिनमप्रमादिनमनिग्रहाहमपि निगृहीतोऽसीति यो ब्रूयात्, स एवमसदभूतदोषोदभावनया निगृह्यते २०। $ १२८. सिद्धान्तमभ्युपेत्यानियमात्कथाप्रसङ्गोऽपसिद्धान्तो नाम निग्रहस्थानं भवति, यः प्रथमं किंचित्सिद्धान्तमभ्युपगम्य कथामुपक्रमते तत्र च सिसाधयिषितार्थसाधनाय वा परोपलम्भाय वा सिद्धान्तविरुद्धमभिधत्ते, “सोऽपसिद्धान्तेन निगृहाते, यथा मीमांसामभ्युपगम्य कश्चिदग्निहोत्रं स्वर्गसाधनमित्याह कथं पुनरग्निहोत्रक्रिया ध्वस्ता सती स्वर्गस्य साधिका भवतीत्यनुयुक्तः प्राह अनया क्रिययाराधितो महेश्वरः फलं ददाति राजादिवदिति, तस्य मीमांसानभिमतेश्वरस्वीकारादपसिद्धान्तो नाम निग्रहस्थानं भवति २१ । ६१२६. जिसका निग्रह हो गया है फिर भी सभामें उसके निग्रहस्थानको घोषणा न करना पर्यनुयोज्योपेक्षण है । पर्यनुयोज्य-अर्थात् निग्रह प्राप्तवादी या वादीको 'तुम्हें यह निग्रहस्थान हो गया है अतः तुम पराजित हो' इस कथनकी उपेक्षा करके जो चुप रह जाता है उसे पर्यनुयोज्योपेक्षण नामका निग्रहस्थान होता है। $ १२७. जिसका निग्रह नहीं हुआ उसे निग्रहस्थान कहकर पराजित बताना निरनुयोज्यानुयोग है। किसी सयुक्तिक निरूपण करनेवाले सावधान सद्वादीसे जो किसी भी तरह पराजयनिग्रहके योग्य नहीं है, 'तुम पराजित हो' यह कहना निरनुयोज्यानुयोग नामका निग्रहस्थान है। ऐसा कहनेवाला स्वयं ही असद्भूत दोषको कहनेके कारण पराजित होता है। ६१२८. स्वीकृत सिद्धान्तके विरुद्ध कथन करके यद्वा-तद्वा अनियमितरूपसे शास्त्रार्थ करना अपसिद्धान्त नामक निग्रहस्थान है। जो वादी पहले किसी सिद्धान्तको स्वीकार करके शास्त्रार्थ शुरू करता है, पीछे अपने पक्षकी सिद्धिके अभिप्रायसे या परपक्षमें दूषण देनेके विचारसे स्वीकृत सिद्धान्तके विरुद्ध बोल जाता है वह अपसिद्धान्त निग्रहस्थानके द्वारा पराजित हो जाता है। जैसे-कोई वादो मीमांसासिद्धान्तको स्वीकार कर अग्निहोत्र यज्ञको स्वर्गका साधन सिद्ध करता है । जब उससे प्रश्न किया गया कि 'अग्निहोत्र यज्ञ तो एक क्रिया है, वह तो कुछ देरमें नष्ट हो जाता है अतः वह कालान्तरभावी स्वर्गका साधन अर्थात् अव्यवहित कारण कैसे हो सकता है ?' तब वह इस दूषणका परिहार करनेके लिए मीमांसकके अकर्तृक सिद्धान्तके विरुद्ध भी उत्तर देता है कि-'इस क्रियासे महेश्वरकी आराधना होती है और ईश्वर इसके फलस्वरूप स्वर्गमें पहुंचा देता है, जैसे कि, राजा अपने खैरख्वाह सेवकको सेवाका फल देता है। इस तरह इसने मोमांसाके विरुद्ध ईश्वरकर्तृत्वका प्रतिपादन किया अतः अपसिद्धान्त निग्रहस्थानसे इसका पराजय हो जायगा। १. "निग्रहस्थानप्राप्तस्यानिग्रहः पर्यनुयोज्योपेक्षणम् ॥" -न्यायसू. ५१२१। २. "अनिग्रहस्थाने निग्रहस्थानाभियोगो निरनुयोज्यानुयोगः ॥" -न्यायसू. ५।२।२२ । ३. "सिद्धान्तमम्युपेत्यानियमात् कथाप्रसङ्गोषसिद्धान्तः॥"-न्यायसू. ५१२३ । ४. सोऽप्यपसि-भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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