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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ३२. १२१ $१२१. पर्षदा विदितस्य वादिना त्रिरभिहितस्यापि यदप्रत्युच्चारणं, तदननुभाषणं' नाम प्रतिवादिनो निग्रहस्थानं भवति । अप्रत्युच्चारयन् किमाश्रयं दूषणमभिवधीत १४ । $ १२२. पर्षदा विज्ञातस्यापि वादिवाक्यार्थस्य प्रतिवादिनो यवज्ञानं, तदज्ञानं नाम निग्रह - स्थानं भवति, अविदितोत्तरविषयो हि किमुत्तरं ब्रूयात्, न चाननुभाषणमेवेदं ज्ञातेऽपि वस्तुन्यनुभाषणासामर्थ्यदर्शनात् १५ । १३४ $ १२३. परपक्षे गृहीतेऽप्यनुभाषितेऽपि तस्मिन्नुत्तराप्रतिपत्तिरप्रतिभा नाम निग्रहस्थानं भवति १६ । $ १२४. कार्यव्यासङ्गात्कथाविच्छेदो विक्षेपो नाम निग्रहस्थानं भवति, सिसाधयिषित. स्यार्थस्याशक्यसाधनतामवसाय कथां विच्छिनत्ति, इदं मे करणीयं परिहीयते पीनसेन कण्ठ उपरुद्ध इत्याद्यभिधाय कथां विच्छिन्दन् विक्षेपेण पराजीयते १७ । $ १२५. स्वपक्षे परापादितदोषमनुद्धृत्य तमेव परपक्षे प्रतीपमापादयतो मतानुज्ञा' नाम निग्रहस्थानं भवति । चौरो भवान्पुरुषत्वात् प्रसिद्धचौरवदित्युक्ते भवानपि चौरः पुरुषत्वादिति प्रति ब्रुवन्नात्मनः परापादितं चौरत्वदोषमभ्युपगतवान् भवतीति मतानुज्ञया निगृह्यते १८ । $ १२१. वादीके जिस कथनको परिषद्ने समझ लिया और वादीने जिसका तीन बार उच्चारण भी किया, फिर भी यदि प्रतिवादी उसका अनुवाद न कर सके तो उसे अननुभाषण नामका निग्रहस्थान होता है । प्रतिवादी जब वादीके वाक्यका अनुवाद- उच्चारण ही नहीं कर सकता तब खण्डन किसका करेगा ? ६ १२२. वादीके जिस वाक्यका अर्थं परिषद्ने अच्छी तरह समझ लिया है पर यदि प्रतिवादी उसे न समझ पाये तो उसे अज्ञान नामका निग्रहस्थान होता है । जब उसने प्रश्नको ही नहीं समझा तब वह उत्तर क्या देगा ? यह अननुभाषण में अन्तर्भूत नहीं होता, क्योंकि वस्तुका ज्ञान होनेपर शब्दोंके दुबारा उच्चारण करनेकी असामर्थ्य रह सकती है । अननुभाषण में मात्र पुनः शब्दानुवाद न कर सकनेकी विवक्षा है और अज्ञानमें उसके अर्थको न समझ सकनेकी । ६ १२३. वादी पक्षको समझ भी लिया, उसका अनुवाद - पुनः उच्चारण भी अच्छी तरह कर दिया, पर उसका उत्तर न सूझना अप्रतिभा नामका निग्रहस्थान है । १२४. अपने पक्षको गिरता हुआ समझकर अन्य आवश्यक कार्योंको करनेका बहाना लेकर शास्त्रार्थको समाप्त करना, प्रकृत बातको उड़ा देना विक्षेप नामका निग्रहस्थान है । अपने पक्षको सिद्ध करना असम्भव जानकर शास्त्रार्थको समाप्त करनेके लिए यदि यह कहा जाय कि'मेरा आवश्यक कार्य पड़ा हुआ है, उसे करके उत्तर दूँगा, पीनससे मेरा गला रुंध रहा है' आदि, तो उसको विक्षेप नामक निग्रहस्थान होता है । $ १२५. अपने पक्ष में दिये गये दोषका उद्धार - खण्डन न करके, उस दोषको मानकर फिर परपक्षमें भी उसी दोषको बतलाना मतानुज्ञा नामका निग्रहस्थान है । जैसे- 'आप चोर हैं क्योंकि आप पुरुष हैं जैसे कोई प्रसिद्ध चोर पुरुष', यह कहनेपर अपने ऊपर किये गये चोरत्वके आरोपका खण्डन नहीं करके यह कहना कि 'इस तरह तो आप भी पुरुष हैं अतः आप भी चोर हैं' मतानुज्ञा है । क्योंकि ऐसा कहनेसे वादीने अपनेको चोर तो मान ही लिया । १. “ विज्ञातस्य परिषदा त्रिरभिहितस्याप्यप्रत्युच्चारणमननुभाषणम् ॥" न्यायसू. ५।२।१६ | २. " अविज्ञातं चाज्ञानम् ||" -- न्यायसू. ५१२१०७ । ३. " उत्तरस्याप्रतिपत्तिरप्रतिभा ॥" - न्यायसू. २१८४ " कार्यव्यासङ्गात् कथाविच्छेदो विक्षेपः ॥ " - न्यायसू. ५/२/१९ । ५. “स्वपक्षे दाभ्युपगमात् परपक्षे क्षेपप्रसङ्गो मतानुज्ञा ॥” – न्यायसू. ५।२।२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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