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________________ -का० ३२.६ १२० ] नैयायिकमतम् । १३३ ६११६. पूर्वापरासंगतपदसमूहप्रयोगावप्रतिष्ठितवाक्यार्थमपार्थक' नाम निग्रहस्थानं भवति । यथा दश दाडिमानि षडपूपाः कुण्डमजाजिनं पललपिण्ड इत्यादि ९।। ११७. प्रतिज्ञाहेतूबाहरणोपनयनिगमनवचनक्रममुल्लंघ्यावयवविपर्यासेन प्रयुज्यमानमनुमानवाक्यमप्राप्तकालं' नाम निग्रहस्थानं भवति स्वप्रतिपत्तिवत्परप्रतिपत्तेजनने परार्थानुमानक्रमस्यापगमात् १०। ६११८. पञ्चावयवे वाक्ये प्रयोक्तव्ये तदन्यतमेनाप्यवयवेन होनं प्रयुञ्जानस्य न्यूनं नाम निग्रहस्थानं भवति । प्रतिज्ञादीनां पञ्चानामपि परप्रतिपत्तिजन्मन्युपयोगादिति ११।। ६११९. एकेनैव हेतुनोवाहरणेन वा प्रतिपादितेऽर्थे हेत्वन्तरमुवाहरणान्तरं वा वदतोऽधिकं नाम निग्रहस्थानं भवति, निष्प्रयोजनाभिधानात् १२। ६१२०. शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तं नाम निग्रहस्थानं भवति, अन्यत्रानुवादात्। शब्दपुनरुक्तं नाम, यत्र स एव शब्द: पुनरुच्चार्यते, यथानित्यः शब्दोऽनित्यः शब्द इति । अर्थपुनरुक्तं तु, यत्र सोऽर्थःप्रथममन्येन शब्देनोच्चार्यते पुनश्च पर्यायान्तरेणोच्यते, यथानित्यः शब्दो विनाशी ध्वनिरिति । अनुवादे तु पौनरुक्त्यं न दोषो, यथा हेतूपदेशेन प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनमिति १३ । -६११६. जिनका कोई पूर्वापर सम्बन्ध नहीं है ऐसे असंगत पदोंका प्रयोग करने के कारण वाक्यार्थको अप्रतिष्ठित सम्बन्धशून्य कर देना अपार्थक नामका निग्रहस्थान है । जैसे 'दस अनार, छह पुये, कुण्ड, बकरेका चमड़ा, मांसका पिण्ड आदि'। ११७. प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन इन पांच अवयवोंका क्रमरहित (बेसिलसिले) प्रयोग करना अप्राप्तकाल नामका निग्रहस्थान है। अनुमानमें प्रतिज्ञादिका क्रम (सिलसिला) बिगड़ जानेपर न तो उनसे अपनी ही समझमें कुछ आ सकता है और न उनसे दूसरा ही कुछ समझ सकता है अर्थात् उनसे न तो स्वार्थानुमान ही हो सकेगा और न परार्थानुमान ही। ११८. अनुमानमें प्रतिज्ञा आदि पांच अवयवोंके प्रयोगका नियम है, पर यदि किसी भी अवयवसे हीन अनुमानका प्रयोग किया जाय तो न्यून नामका निग्रहस्थान होता है । क्योंकि प्रतिज्ञादि पांचों ही अवयव परका ज्ञान कराने में समानरूपसे उपयोगी होते हैं । ११९. एक ही हेतु और उदाहरणसे साध्यकी सिद्धि हो जाती है, फिर भी दो या अधिक हेतु और उदाहरणोंका प्रयोग करना अधिक नामका निग्रहस्थान है। प्रयोजनके बिना ही यदि इस तरह हेतु और उदाहरणोंके कहनेका सिलसिला जारी रखा जाय तब तो निष्प्रयोजन वाद बढ़ जायगा। ६१२०. अनुवादके सिवाय शब्द और अर्थका पुनः दुबारा कथन करना पुनरुक्त निग्रहस्थान है। उसी शब्दका बार-बार उच्चारण करना शब्द पुनरुक्त है। जैसे 'शब्द अनित्य है, शब्द अनित्य है।' आदि। जहां अर्थ तो वही हो पर उसका भिन्न-भिन्न पर्यायवाची शब्दों-द्वारा दबारा कथन करना अर्थपुनरुक्त है। जैसे, पहले कहना कि 'शब्द अनित्य है', फिर कहना कि 'ध्वनि विनाशो है'। अनुवादमें पुनरुक्तिको दोष नहीं मानते; क्योंकि अनुवादका अर्थ ही है कि अनुपश्चात् फिरसे वाद-कहना । जैसे हेतुका दुबारा कथन करके प्रतिज्ञाका दुबारा कहना निगमन है । निगमनमें प्रतिज्ञाका अनुवाद-पुनः कथन ही तो होता है। १. "पौर्वापर्यायोगादप्रतिसंबद्धार्थमपार्थकम् ॥" -न्यायसू. ५।२।१०। २. "अवयवविपर्यासवचनमप्राप्तकालम् ॥"-न्यायसू. ५।२।११। ३. -स्यानुपगमात् भ. २। ४. "हीनमन्यतमेनाप्यवयवेन न्यूनम् ॥"-न्यायसू. ५२।१२। ५. "हेतूदाहरणाधिकमधिकम् ॥" -न्यायसू. पा२।१३। ६. निःप्रयो-प. १, २, भ. १,२। ७. "शब्दार्थयोः पुनर्वचनं पुनरुक्तमन्यत्रानुवादात् ॥"-न्यायसू. ५।२।१४ । "अर्थादापन्नस्य स्वशब्देन पुनर्वचनम् ॥"-न्यायसू. ५।२।।५। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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