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________________ १३२ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ३२. ६ ११३भवति । तस्मिन्नेव प्रयोग तथैव सामान्यस्य व्यभिचारेण दूषिते जातिमत्वे सतीत्यादि विशेषणमुपादानो हेत्वन्तरेण निगृहीतो भवति ५। ११३. प्रकृतादर्थादन्योऽर्थोऽर्थान्तरं तदनौपायिकमभिदधतोऽर्थान्तरं' नाम निग्रहस्थानं भनति । अनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति हेतुः । हेतुरिति च हिनोतेर्धातोस्तुप्रत्यये कृदन्तं पदम् । पदं च नामाख्यातोपसर्गनिपातभेदाच्चतुर्विधमित प्रस्तुत्य नामादीनि व्याचक्षाणः प्रकृतानुपयोगिनार्थान्तरेण निगृह्यत इति । ११४. अभिधेयरहितवर्णानुपूर्वीप्रयोगमात्रं निरर्थक नाम निग्रहस्थानं भवति । अनित्यः शब्दः कचटतपानां गजडदबत्वात घझढधभवदित्येतदपि सर्वथार्थशून्यत्वान्निग्रहाय भवति साध्यानुपयोगाद्वा । $ ११५. यत्साधनवाक्यं दूषणं वा किंचित्रिरभिहितमपि पर्ष प्रतिवादिभ्यां बोद्ध न शक्यते, तत् क्लिष्टशब्दमप्रसिद्धप्रयोगमतिह्रस्वोच्चारितमित्येवंप्रकारमविज्ञातार्थ' नाम निग्रहस्थानं भवति । असामर्थ्यसंवरणप्रकारो ह्ययमिति निगृह्यते ८। सामान्यसे व्यभिचार आनेपर दोष परिहारके लिए 'जातिमत्त्वे सति--सामान्यवाला होनेपर' इस विशेषणको जोड़ देना हेत्वन्तर नामका निग्रहस्थान है। 'जातिमत्त्वे सति' विशेषण देनेसे घटत्वसामान्यके व्यभिचारका वारण हो जाता है क्योंकि सामान्य स्वयं सामान्यवाला नहीं होता। ११३. प्रकृत विषयसे सम्बन्ध न रखनेवाली साध्यसिद्धि में अनुपयोगी अण्ड-बण्ड असम्बद्ध बातें करना अर्थान्तर नामका निग्रहस्थान है। जैसे 'शब्द कृत्रिम होनेसे अनित्य है', हेतु हिधातुसे कृदन्तमें तु प्रत्यय करने पर सिद्ध होनेवाला पद है। पद नाम आख्यात उपसर्ग तथा निपातके भेदसे चार प्रकारका है। और फिर नाम आदिका व्याख्यान शुरू कर दिया जाता है, इस तरह साध्यसिद्धिमें अनुपयोगी बातें करनेवालेका अर्थान्तर होनेसे निग्रह-पराजय होता है। ६११४. अर्थरहित मात्र वर्णोंका उच्चारण करने लगना निरर्थक नामका निग्रहस्थान है। जैसे 'शब्द अनित्य है क्योंकि क च ट त प का ग ज ड द ब है जैसे झ भ ढ ध भ।' यहाँ- यह विचारना चाहिए कि-'यह वर्णोच्चारण साध्यकी सिद्धि में अनुपयोगी होनेसे निग्रहस्थान है अथवा बिलकुल अर्थशून्य होनेसे ? वर्णोच्चारण सर्वथा अर्थशून्यता तो नहीं कहा जा सकता; क्योंकि बच्चोंको रटाने के लिए वर्णोच्चारणका अर्थ 'अनुकरण करके ठीक उसी तरह घोखना' हो सकता है। साध्यसिद्धि में अनुपयोगी होनेसे तो इसका अर्थान्तर नामके निग्रहस्थानमें अन्तर्भाव हो जाना चाहिए।' इसका समाधान इस प्रकार किया गया है कि-अर्थान्तर निग्रहस्थानमें प्रकृतानुपयोगी कुछ भी पद, वाक्य या श्लोक कहे जा सकते हैं, पर निरर्थकमें केवल अर्थशन्य वर्णोच्चारण हो विवक्षित है। ६११५. ऐसे साधन या दूषण वाक्यका प्रयोग करना, जिसे तीन बार उच्चारण करनेपर न तो प्रतिवादी ही समझे और न सभामें उपस्थित सभापति आदि ही, वह अविज्ञातार्थ नामका निग्रहस्थान है। अपनी असामर्थ्यको ढंकनेके लिए अत्यन्त क्लिष्ट शब्दोंका उच्चारण, अप्रसिद्धपदोंका प्रयोग, बहुत धीरे कहना आदि अनेकों प्रकार अविज्ञातार्थमें ही अन्तर्भूत हैं। १. -दर्थादर्थान्तरं तदनौ-प. १, २, भ. १, २। २. "प्रकृतादर्थादप्रतिसंबद्धार्थमर्थान्तरम् ॥" -न्यायसू. ५।।। ३. “वर्णक्रमनिर्देशवद् निरर्थकम् ॥" -न्यायसू. ॥रा। ४. परिषत्प्रतिवादिम्यां त्रिरभिहितमप्यविज्ञातमविज्ञातार्थम् ॥"-न्यायसू. ५।२।९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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