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________________ -का० ३२.६ ११२] नैयायिकमतम् । १३१ ज्ञान्तरं 'नाम निग्रहस्थानं भवति । अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वादित्युक्ते तथैव सामान्येन व्यभिचारे नोदिते यदि याद्युक्तं यत्सामान्यमैन्द्रियकं नित्यं तद्धि सर्वगतमसर्वगतस्तु शब्द इति । सोऽयमनित्यः शब्द इति पूर्वप्रतिज्ञातः प्रतिज्ञान्तरमसर्वगतः शब्द इति प्रतिजानानः प्रतिज्ञान्तरण निगृहीतो भवति २। $११०. प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधः "प्रतिज्ञाविरोधो नाम निग्रहस्थानं भवति । गुणव्यतिरिक्त द्रव्यं रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धेरिति सोऽयं प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधः। यदि हि गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यं न तहि रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिः। अथ रूपादिभ्योऽर्थान्तरस्यानुपलब्धिः, कथं गुणव्यतिरिक्तं द्रव्यमिति । तदयं प्रतिज्ञाविरुद्धाभिधानात्पराजीयते ३। ६१११. पक्षसाधने परेण दूषिते तदुद्धरणाशक्त्या प्रतिज्ञामेव निलवानस्य प्रतिज्ञासंन्यासो नाम निग्रहस्थानं भवति । अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकवादित्युक्ते तथैव सामान्येनानैकान्तिकतायामुद्भावितायां यदि ब्रूयात्क एवमाह अनित्यः शब्द इति प्रतिज्ञासंन्यासात्पराजितो भवति ४। ६११२. अविशेषाभिहिते हेतौ प्रतिषिद्धे तद्विशेषणमभिदधतो हेत्वन्तरं नाम निग्रहस्थानं साध्य बनाकर एक नयी हो प्रतिज्ञा करना प्रतिज्ञान्तर नामका निग्रहस्थान है। जैसे-'शब्द अनित्य है क्योंकि वह इन्द्रिय ग्राह्य है' इस पक्षको पहले की तरह घटत्व सामान्यसे व्यभिचार दिखाकर खण्डित किये जानेपर यदि वादो कहे कि भले ही सामान्य ऐन्द्रियक होनेके कारण नित्य हो पर वह तो सर्वगत है, किन्तु शब्द तो घड़ेके समान असर्वगत होनेसे अनित्य ही होगा' इस प्रकार यह वादी अपनी पहली अनित्यत्व प्रतिज्ञाको सिद्ध करनेके लिए एक नयी ही 'शब्द असर्वगत है' यह प्रतिज्ञा करता है। पर इस नयी प्रतिज्ञासे न तो पूर्वोक्त व्यभिचारका परिहार ही हो पाता है और न पूर्व प्रतिज्ञाकी सिद्धि ही होती है। प्रतिज्ञासे प्रतिज्ञाकी सिद्धि नहीं होती, प्रतिज्ञाकी सिद्धिके लिए तो अविनाभावी हेतुका प्रयोग करना चाहिए। इस तरह प्रतिज्ञान्तर करनेवाले वादीकी पराजय होती है। ६.११०. प्रतिज्ञा और हेतुका विरोध होना प्रतिज्ञाविरोध है। जैसे–'गुण द्रव्यसे भिन्न है क्योंकि वह द्रव्यसे जुदा नहीं मालूम होता' इस तरह गुण यदि द्रव्यसे जुदा नहीं मालूम होता तब द्रव्य और गुणमें भिन्नता कैसे हो सकती है ? इससे तो अभिन्नता ही सिद्ध होती है। इस तरह प्रतिज्ञाके विरोधी हेतुको उपस्थित करनेके कारण वादी पराजित होता है। ६१११. प्रतिवादीके द्वारा पक्षका खण्डन किये जानेपर दूषणोंका परिहार कर अपने पक्षके उद्धारकी आशा न रहनेपर प्रतिज्ञाका ही लोप कर देना प्रतिज्ञासंन्यास नामका निग्रहस्थान है। जैसे-'शब्द ऐन्द्रियक होनेसे अनित्य है' इसी प्रतिज्ञामें पहलेको तरह घटत्वसामान्यसे व्यभिचार दिये जानेपर व्यभिचारका परिहार करने में अपनेको असमर्थ पाकर यदि वादी कहे कि 'मैंने शब्दको अनित्य कब कहा है' तो उसकी प्रतिज्ञाका संन्यास लोप करनेके कारण पराजय हो जायेगी। ११२. पूर्व हेतुके खण्डित हो जानेपर दोषका कारण करनेके लिए उसमें कोई विशेषण जोड़ देना हेत्वन्तर नामका निग्रहस्थान है। जैसे 'शब्द ऐन्द्रियक होनेसे अनित्य है' इसी प्रयोगमें १. "प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे धर्मविकल्पात्तदर्थनिर्देशः प्रतिज्ञान्तरम् ॥"-न्यायसू. ५।२।३ । २. -चारेण नो-भ. २। ३. ब्रूयादयुक्तं यत्सा-प. १, २,१। अयादयुक्तं यस्मात्सा-भ. २। ४.-न्द्रियं नित्यं भ. २। ५. "प्रतिज्ञाहेत्वोविरोधः प्रतिज्ञाविरोधः ॥" न्यायसू. ५ । ६. "पक्षप्रतिषेधे प्रतिज्ञातार्थापनयनं प्रतिज्ञासंन्यासः ॥" न्यायसू. ५।२।२ । ७. अविशेषोक्ते हेतौ प्रतिषिद्धे विशेषमिच्छतो हेत्वन्तरम् ॥"-न्यायसू. ५।२।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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