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________________ १३० षड्दर्शनसमुच्चये [का० ३२. $ १०८ - वा प्रतिपद्यमान इति विप्रतिपत्त्यप्रतिपत्तिभेदाच्च द्वाविंशतिनिग्रहस्थानानि भवन्ति । तद्यथाप्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरं प्रतिज्ञाविरोधः प्रतिज्ञासंन्यासः हेत्वन्तरम् अर्थान्तरं निरर्थकम् अविज्ञातार्थम् अपार्थकम् अप्राप्तकालं न्यूनम् अधिकं पुनरुक्तम् अननुभाषणम् अज्ञानम् अप्रतिभा विक्षेपः मतानुज्ञा पर्यनुयोज्योपेक्षणं निरनुयोज्यानुयोगः अपसिद्धान्तः हेत्वाभासाश्च । अत्राप्यननुभाषणमज्ञानमप्रतिभा विक्षेपः पर्यनुयोज्योपेक्षणमित्यप्रतिपत्तिप्रकाराः, शेषाश्च विप्रतिपत्तिभेदाः।। १०८. तत्र हेतावनैकान्तिकीकृते प्रतिदृष्टान्तधर्म स्वदृष्टान्तेऽभ्युपगच्छतः प्रतिज्ञाहानिर्नाम निग्रहस्थानं भवति । अनित्यः शब्द ऐन्द्रियकत्वाद्घटवदिति साधनं वादी वदन् परेण सामान्यमैन्द्रियकमपि नित्यं दृष्टमिति हेतावनैकान्तिकीकृते यद्येवं ब्रूयात्सामान्यवघटोऽपि नित्यो भवत्विति स एवं ब्रुवाणः शब्दानित्यत्वप्रतिज्ञां जह्यात् । शब्दोऽपि नित्य एव स्यात् । ततः प्रतिज्ञाहान्या पराजीयते । ६१०९. प्रतिज्ञातार्थप्रतिषेधे परेण कृते तत्रैव मिणि धर्मान्तरं साधनीयमभिदधतः प्रतिप्रक्रियाको ही न समझें, अथवा समझें भो तो विपरीत समझें अर्थात् साधनको साधनाभास और दूषणको दूषणाभास समझें। तात्पर्य यह कि विरुद्ध समझ तथा असमझ रूप विप्रतिपत्ति और अप्रतिपत्तिके ही शाखा-प्रशाखा रूप बाईस निग्रहस्थान हो जाते हैं-१ प्रतिज्ञाहानि, २ प्रतिज्ञान्तर, ३ प्रतिज्ञाविरोध, ४ प्रतिज्ञासंन्यास, ५ हेत्वन्तर, ६ अर्थान्तर, ७ निरर्थक, ८ अविज्ञातार्थ, ९ अपार्थक, १० अप्राप्तकाल, ११ न्यून, १२ अधिक, १३ पुनरुक्त, १४ अननुभाषण, १५ अज्ञान, १६ अप्रतिभा, १७ विक्षेप, १८ मतानुज्ञा, १९ पर्यनुयोज्योपेक्षण, २० निरनुयोज्यानुयोग, २१ अपसिद्धान्त, २२ हेत्वाभास। इनमें अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप और पर्यनुयोज्योपेक्षण ये पाँच अप्रतिपत्तिमूलक हैं तथा शेष निग्रहस्थान विप्रतिपत्तिके प्रकार हैं। . १०८. प्रतिवादोके द्वारा हेतुको व्यभिचारी बताये जानेपर प्रविरोधी दृष्टान्त या पक्षके धर्मको अपने दृष्टान्त या पक्षमें स्वीकार कर लेना प्रतिज्ञाहानि नामका निग्रहस्थान है। जैसेवादीने कहा 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह इन्द्रियका विषय है' प्रतिवादीने "येनेन्द्रियेण यदर्थो गृह्यते तेन तन्निष्ठा जातिस्तदभावश्च गृह्यते'-जिस इन्द्रियसे जो पदार्थ गृहीत होता है उसी इन्द्रियसे उसमें रहनेवाली जाति तथा उसके भावका भी ज्ञान हो जाता है" इस नियमके अनुसार घटत्वनामक नित्य जातिको ऐन्द्रियक मानकर वादीके हेतुमें व्यभिचार दिखाया कि-'घटत्व सामान्य ऐन्द्रियक-इन्द्रियका विषय होकर भी नित्य है' इस प्रकार हेतुमें अनेकान्तिक दोष आनेपर वादी यदि अपनी हार न मानकर सभामें कहे कि-'अच्छा घड़ा भी नित्य हो जाय' वादीने इस प्रकार प्रतिदृष्टान्तरूप नित्यत्व घटत्वके धर्मको स्वदष्टान्त घड़े में स्वीकार करके अपनो 'शब्द अनित्य है' इस प्रतिज्ञाको ही तोड़ दिया। क्योंकि दृष्टान्तमें नित्यता मान लेनेसे शब्दमें भी नित्यता माननी ही पड़ेगी। इस प्रकार प्रतिज्ञाको तोड़ देनेसे वादी पराजित हो जाता है । ६१०९. प्रतिज्ञाके खण्डित होनेपर उस प्रतिज्ञाको सिद्धिके लिए उसी धर्मीमें अन्य धर्मको १. -भासश्च प. १, २, भ. १, २। २. "प्रतिज्ञाहानिः प्रतिज्ञान्तरं प्रतिज्ञाविरोधः प्रतिज्ञासंन्यासो हेत्वन्तरमर्थान्तरं निरर्थकमविज्ञातार्थमपार्थकमप्राप्तकालं न्यूनमधिकं पुनरुक्तमननुभाषणमज्ञानमप्रतिभा विक्षेपो मतानुज्ञा पर्यनुयोज्योपेक्षणं निरनुयोज्यानुयोगोऽपसिद्धान्तो हेत्वाभासाश्च निग्रहस्थानानि ।' न्यायसू. ५।।। ३. "तत्र अननुभाषणमज्ञानमप्रतिभा विक्षेपो मतानज्ञा पर्यनुयोज्योपेक्षणमित्यप्रतिपत्तिनिग्रहस्थानं शेषस्त विप्रतिपत्तिरिति ।" -न्यायभा. १।।२०। ४. "प्रतिदृष्टान्तधर्माभ्यनुज्ञा स्वदृष्टान्ते प्रतिज्ञाहानिः ॥"-न्यायसू. पा२।२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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