SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ३१. ६ १०२ - १०२. प्रयत्नकार्यनानात्वोपन्यासेन प्रत्यवस्थानं कार्यसमा जातिः। अनित्यः शब्दः प्रयत्नान्तरीयकत्वादित्युक्ते जातिवाद्याह । प्रयत्नस्य द्वैरूप्यं दृष्टम् । किंचिदसदेव तेन जन्यते यथा घटादिकम् । किचिच्च सदेवावरणव्युदासादिनाभिव्यज्यते यथा मृवन्तरितमूलकोलकादि गर्भगत. पुत्रादि वा । एवं प्रयत्नकार्यनानात्वादेष शब्दः प्रयत्नेन व्यज्यते जन्यते वेति संशय इति । संशयापादनप्रकारभेदाच्च संशयसमातः कार्यसमा जातिभिद्यते २८ । .5 १०३. तदेवमुभावनविषयविकल्पभेदेन जातीनामानन्त्येऽप्यसंकीर्णोदाहरणविवक्षया चतुर्विशतिर्जातिभेदा एते प्रदर्शिताः। $ १०४. प्रतिसमाधानं तु सर्वजातीनां पक्षधर्मत्वाद्यनुमानलक्षणपरीक्षालक्षणमेव। न ह्यविप्लुतलक्षणे हेतावेवंप्रायाः पांशुपाताः प्रभवन्ति । कृतकत्वप्रयत्नानन्तरीयकत्वयोश्च दृढकृतप्रतिबन्धात नावरणादिकृतं शब्दानुपलम्भनमपि त्वनित्यत्वकृतमेव । जातिपयोगे च परेग कृते सम्पगुत्तरमेव वक्तव्यम्, न तु प्रतीपं जात्युत्तरैरेव प्रत्यवस्थेयेमासमञ्जस्यप्रसंगादिति ॥३१॥ $१०२. प्रयत्न के उत्पत्ति अभिव्यक्ति आदि अनेक कार्योंको दिखाकर खण्डन करना कार्यसमा जाति है। जैसे 'शब्द प्रयत्नानन्तरीयक होनेसे अनित्य है' इस अनुमानका प्रयोग करनेपर जातिवादी कहता है कि 'प्रयत्न दो प्रकारका होता है। एक प्रयत्न असत् पदार्थको उत्पन्न करता है जैसे घडेको उत्पन्न करनेवाला कुम्हारका प्रयत्न । दूसरे प्रयत्नसे विद्यमान पदार्थका आवरण हटाकर अभिव्यक्ति प्रकटता की जाती है जैसे जमीन खोदकर जड़ या गड़ी हुई कीलका प्रकट किया जाना, अथवा गर्भगत पुत्रादिका प्रकट होना।' इसी प्रकार जब प्रयत्नके अनेक कार्य होते हैं तब सन्देह हो सकता है कि 'यह शब्द उच्चारणादि प्रयत्नसे उत्पन्न होता है या प्रकट होता है ?' संशय उत्पन्न करनेके प्रकारमें भेद होनेसे यह संशयसमा जातिसे भिन्न है। ' १०३. यद्यपि उद्भावनके प्रकारों तथा विषयोंमें भेद होनेसे जातियोंके अनन्त भेद हो सकते हैं फिर भी असंकीर्ण अर्थात् परस्परमें अन्तर्भूत नहीं होनेवाले उदाहरणोंकी अपेक्षासे जातियोंके ये चौबीस भेद दिखाये गये हैं। ६१०४. इन सब जातियोंका समाधान इस प्रकार करना चाहिए-जब मूल अनुमान हेतुमें पक्षधर्मत्व आदि पंचरूप विद्यमान हैं तब अन्य किसी साधर्म्य या वैधर्म्य दृष्टान्तके उपस्थित करने मात्रसे उसकी व्याप्तिका खण्डन नहीं किया जा सकता। सच्चे अविनाभावी हेतुकी आँखोंमें इस तरहकी जाति प्रयोगरूपी धूल नहीं झोंकी जा सकती। जब कृतकत्व या प्रयत्नानन्तरीयकत्वका कार्यत्वके साथ निर्दोष दृढ़ सम्बन्ध मौजूद है तब शब्दकी उच्चारणसे पहले अनुपलन्धि आवरणके कारण नहीं है किन्तु शब्दका अभाव ही उसमें कारण है। अतः शब्द अनित्य ही है। जब प्रतिवादी जातिका प्रयोग करे तब उसका खण्डन सम्यक् उत्तर देकर ही करना चाहिए। यदि जातिवादीका खण्डन जात्युत्तरसे ही किया जावे; तब तो मिथ्यादूषणोंकी परम्परा होनेसे शास्त्रार्थ तो भांड़ोंका तमाशा जैसा हो जायगा। और इस तरह बड़ी गड़गड़ी उत्पन्न हो जायेगी। अतः जातिवादीका खण्डन सम्यक् सयुक्तिक उत्तरसे ही करना चाहिए ॥३१॥ १. "प्रयत्नकार्यनानात्वोपन्यासेन प्रत्यवस्थानं कार्यसमा जातिर्भवति ।"-न्यायक. पृ. २१ । २. यथा मूलकोलादि भ. २। ३. तदेवोद्भा-भ. २। “तदेवमुद्भावनविषयविकल्पभेदेन जातीनामानन्त्येऽपि असङ्कीर्णोदाहरणविवक्षया चतुर्विशतिर्जातिभेदाः प्रदर्शिताः। प्रतिसमाधानं तु सर्वजातीनां पक्षधर्मत्वाद्यनुमानलक्षणे हेतावेवम्प्रायाः पशुपाता भवन्ति ।" -न्यायक, पृ.११। ४. “जातिप्रयोगे च परेण कृते सम्यगुत्तरं वक्तव्यम् । प्रतिपज्जात्युत्तरेणैव प्रत्यवस्थेयमासमजस्यप्रसङ्गादिति ।"-न्यायक. पृ. २)। ५. -यमसमंजसस्यप्र-भ. २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy