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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० ३१.९९८ § ९८. उपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमा जातिः । अनित्यः शब्दः प्रयत्नानन्तरीयकत्वादित्युक्ते प्रत्यवतिष्ठते । न खलु प्रयत्नानन्तरीयकत्वमनित्यत्वे साधनम् । साधनं हि तदुच्यते येन विना न साध्यमुपलभ्यते । उपलभ्यते च प्रयत्नानन्तरीयकत्वेन विनापि विद्युदादावनित्यत्वं, शब्देऽपि क्वचिद्वायुवेगभज्यमानवनस्पत्यादिजन्ये तथैवेति २० । ९९. अनुपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिसमा जातिः । तत्रैव प्रयत्नानन्तरीयकत्वे तावुपन्यस्ते सत्याह जातिवादी । न' प्रयत्नकार्यः शब्दः प्रागुच्चारणादस्त्येवासी, आवरणयोगात्त नोपलभ्यते । आवरणानुपलभ्येऽप्यनुपलम्भान्नास्त्येवोच्चारणात्प्राक्शब्द इति चेत् न । अत्र हि यानुपलब्धिः सा स्वात्मनि वर्तते न वा । वर्तते चेत्तदा यत्रावरणेऽनुपलब्धिर्वर्तते, तस्यावरणस्य यथानुपलम्भस्तथावरणानुपलब्धेरप्यनुपलम्भः स्यात् । आवरणानुपलब्धेश्चानुपलम्भादभावो भवेत् । तदभावे चावरणोपलब्धेर्भावो भवति । ततश्च मृदन्तरिर्तमूलकोलादिवदावरणोपलब्धिकृतमेव १२६ $ ९८. निर्दिष्ट साधन के अभाव में साध्यकी उपलब्धि बनाकर खण्डन करना उपलब्धिसमा जाति है । जैसे - ' शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रयत्नानन्तरीयक - प्रयत्नका अविनाभावी है, प्रयत्न के बाद उत्पन्न होता है' इस हेतुका जातिवादी इस प्रकार खण्डन करता है कि - ' प्रयत्नानन्तरीयकत्व अनित्यत्वका साधक नहीं हो सकता । साधन तो उसे कहते हैं जिसके बिना साध्य न हो सके । पर बिजली आदि में प्रयत्नानन्तरीयकत्वके अभाव में भी अनित्यत्व देखा जाता है। इसी तरह भीषण आँधी आनेपर टूटनेवाली वृक्षोंकी शाखाओं आदिकी चरमराहट भी प्रयत्नके बिना ही देखी जाती है और वह अनित्य 1 ९९. अनुपलब्धिकी भी अनुपलब्धि दिखाकर खण्डन करना अनुपलब्धिसमा जाति है । जैसे - 'शब्द प्रयत्नानन्तरीयक होने से अनित्य है' इस अनुमानका प्रयोग करनेपर जातिवादी कहता है कि - ' प्रयत्नानन्तरीयक होंनेसे शब्दको कार्य नहीं कह सकते, उच्चारणरूप प्रयत्नसे तो शब्दकी अभिव्यक्ति होती है । उच्चारणके पहले भी शब्द विद्यमान है, आवरणके कारण उसकी उपलब्धि नहीं होती ।' अनुमानवादी - यदि आवरणके कारण उच्चारणके पहले शब्दको उप for नहीं होती तो कमसे कम आवरणकी तो उपलब्धि अवश्य होनी चाहिए। जैसे यदि कपड़े - से ढँकी हुई चीज नहीं दिखती तो कपड़ा तो जरूर ही दीखता है। चूँकि शब्दका आवरण भी उपलब्ध नहीं होता और शब्द भी उपलब्ध नहीं होता अतः उच्चारणके पहले शब्द है ही नहीं, और इसीलिए उसकी उच्चारणसे उत्पत्ति माननी चाहिए। जातिवादी - आप जिस तरह आवरणकी अनुपलब्धिसे आवरणका अभाव सिद्ध करते हैं उसी तरह आवरणकी अनुपलब्धि भी कहाँ उपलब्ध होती है ? अर्थात् वह भी तो अनुपलब्ध ही है अतः आवरणानुपब्धिकी अनुपलब्धि होनेसे आवरणानुपलब्धिका अभाव होकर आवरणका सद्भाव ही सिद्ध होता है । और आवरणका सद्भाव होनेसे उच्चारणके पहले शब्दका सद्भाव सिद्ध हो ही जाता है । हम जो आवरणानुपलब्धिकी अनुपलब्धि कह रहे हैं तथा आप जो आवरणकी अनुपलब्धि कह रहे हैं वे अनुपलब्धियां स्वरूपसत् हैं; या नहीं ? यदि हैं; तो जिस प्रकार आवरणविषयक अनुपलब्धिके स्वरूपसत् होनेसे आप आवरणका अभाव सिद्ध करते हो उसी तरह आवरणानुपलब्धिविषयक अनुपलब्धि भी स्वरूपसत् होकर आवरणानुपब्धिका अभाव सिद्ध करेगी। इस तरह आवरणापलब्धिका अभाव होनेपर आवरणोपलब्धिका सद्भाव ही हो जाता है । अतः जैसे मिट्टोसे १. " उपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमुपलब्धिसमा जातिर्भवति ।" - न्यायक पृ. २० । २. "अनुपलब्ध्या प्रत्यवस्थानमनुपलब्धिसमा जातिर्भवति ।" न्यायक. पृ. २० । ३. प्रयत्नानन्तरीयकः कार्यः आ. क. ४. मूलकली कादि मा. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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