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________________ -का. ३१. ९७ ] नैयायिकमतम् । १२५ ६९४ त्रैकाल्यानुपपत्या हेतोः 'प्रत्यवस्थानहेतुसमा 'जातिः। हेतुः साधनं तत्साध्यात्पूर्व पश्चात्सह वा भवेत् । यदि पूर्वमसति साध्ये तत्कस्य साधनम् । अथ पश्चात्साधनं हि पूर्व साध्यं तस्मिश्च पूर्वसिद्धे किं साधनेन । अथ युगपत्साध्यसाधने तहि तयोः सव्येतरगोविषाणयोरिव साध्यसाधनभाव एव न भवेदिति १६ । ६९५. अर्थापत्त्या प्रत्यवस्थानमपत्तिसमाँ जातिः । यद्यनित्यसाधात्कृतकत्वादनित्यः शब्दोऽर्यादापद्यते, तदा नित्यसाधान्नित्य इति । अस्ति चास्य नित्येनाकाशादिना साधर्म्यममूर्तत्वमित्युद्भावनप्रकारभेद एवायमिति १७। ६९६. अविशेषापादनेन प्रत्यवस्थानमविशेषसमा जातिः। यदि शब्दघटयोरेको धर्मः कृतकत्वमिष्यते, तहि समानधर्मयोगात्तयोरविशेषे तद्वदेव सर्वपदार्थानामविशेषः प्रसज्यत इति १८ । ६९७. उपपत्त्या प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसमा जातिः । कृतकत्वोपपत्त्या शब्दस्यानित्यत्वं, तद्यमर्तत्वोपपत्त्या नित्यत्वमपि कस्मान्न भवतीति पक्षद्वयोपपत्त्यानध्यवसायपर्यवसानत्वं विवक्षितमित्युद्भावनप्रकारभेद एवायम् १९ । - ६९४, तीनों कालोंमें हेतुकी असिद्धि बतलाकर खण्डन करना अहेतुसमा जाति है। जैसे हेतु साध्यके पहले रहता है, या पीछे रहता है, या साथ रहता है ? साध्यके पहले तो हो नहीं सकता; क्योंकि जब साध्य ही नहीं है तब वह साधन किसका होगा ? यदि पीछे रहता है तो जब साध्य पहले ही रह गया अर्थात् सिद्ध हो गया तब साधनको आवश्यकता ही क्यों होगी? साधन कालमें साध्य ही नहीं रहा तब किसकी सिद्धि की जायेगी ? यदि साध्य और साधन सहभावी हैं; तब उनमें गायके दायें-बायें सींगोंकी तरह परस्पर साध्य-साधन भाव नहीं हो सकता। उस समय 'कौन साधन है तथा कौन साध्य ?" यह सन्देह भी हो सकता है। ६९५. अर्थापत्तिसे शब्दोंका दूसरा अर्थ फलित करके खण्डन करना अर्थापत्तिसमा जाति है। जैसे-यदि अनित्य घटादि पदार्थके कृतकत्वरूप साधय॑से शब्द अनित्य होता है तो इसका यह मतलब अर्थात् ही निकल जाता है कि 'वह नित्य पदार्थके साधर्म्यसे नित्य भी होगा, शब्दमें नित्य आकाशका अमूर्तत्वरूप साधर्म्य भी पाया जाता है अतः उसे नित्य होना चाहिए।' इन जातियोंमें परस्पर प्रायः कहनेको शैलीका ही भेद है। ६९६. दृष्टान्त और पक्षमें अविशेषता अर्थात् समानता देखकर किसी अन्य धर्मसे सभी पदार्थों में-से अविशेषता बतलाकर खण्डन करना अविशेषसमा जाति है। जैसे-यदि शब्द और घटमें कृतकत्वरूप एक धर्मकी दृष्टिसे अविशेषता है तो सत्त्वरूप एक धर्मको दृष्टिसे सभी पदार्थों में अविशेषता अर्थात् समानता होनी चाहिए और इस तरह सभी पदार्थोंको अनित्य होना चाहिए। ६९७. साध्य तथा साध्याभाव दोनोंकी उपपत्ति-युक्ति दिखाकर खण्डन करना उपपत्तिसमा जाति है । जैसे-यदि कृतकत्वरूप युक्तिसे शब्दमें अनित्यता सिद्ध होती है तो अमूर्तत्वकी उपपत्तिसे नित्यता क्यों नहीं सिद्ध होती? इस तरह दोनों पक्षकी युक्तियां दिखाई जानेसे शब्दके किसी भी धर्मका निश्चय नहीं हो सकेगा। यह भी एक कहनेका ही ढंग है। १. -स्थानं हेतु-आ., क., प. १, २, भ. १। २. "त्रकाल्यानुपपत्त्या प्रत्यवस्थानमहेतुसमा जातिर्भवति ।" -न्यायक. पृ. १९। ३. अर्थोपपत्त्या भ. २। ४. "अर्थापत्या प्रत्यवस्था नाम अर्थापत्तिसमा जातिर्भवति ।" -न्यायक पृ. १९। ५. "अविशेषापादनेन प्रत्यवस्थानमविशेषसमा जातिर्भवति ।" -न्यायक.पू. १९। ६.-धर्मयोरविशेषे भ.२ ७. "उपपत्त्या प्रत्यवस्थानमुपपत्तिसमा जातिर्भवति ।"-न्यायक. पू. १९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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