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________________ १२२ षड्दर्शनसमुच्चये [का० ३१.६८५नो चेत् घटवदनित्योऽपि मा भूविति शब्दे श्रावणत्वमपकर्षति ४ । ८५. वर्ध्यावाभ्यां प्रत्यवस्थानं वावर्ण्यसमे जाती भवतः। ल्यापनीयो वर्थस्त. द्विपरीतोऽवयंस्तावेतौ वावौँ साध्यवृष्टान्तधर्मी विपर्यस्यन्वया॑वयंसमे जाती प्रयुङ्क्ते। यथाविधः शब्दधर्मः कृतकत्वादिर्न ताहक घटधर्मो, यादृक् च घटधर्मो न तादृक् शब्दधर्म इति । साध्यधर्मो दृष्टान्तधर्मश्च हि तुल्यौ कर्तव्यो । अत्र तु विपर्यासः । यतो यादृग् घटधर्मः कृतकत्वादिर्न तादृक् शब्दधर्मः। घटस्य ह्यन्यादृशं कुम्भकारादिजन्यं कृतकत्वं; शब्दस्य हि ताल्वोष्ठादिव्यापारजमिति ५-६। ६८६. धर्मान्तर विकल्पेन प्रत्यवस्थानं विकल्पसमा जातिः। यथा कृतकं किचिन्मृदु दृष्टं तूलशय्यादि, किंचित्तु कठिनं कुठारादि, एवं कृतकं किंचिदनित्यं भविष्यति घटादिकं, किंचिच्च नित्यं शब्दादीति ७॥ अर्थात् श्रोत्रेन्द्रिय का विषय नहीं होता, अतः घड़ेकी तरह शब्दको भी अश्रावण ही होना चाहिए। यदि शब्द घड़ेकी तरह अश्रावण नहीं होता तो घड़ेकी तरह अनित्य भी न हो।' इस तरह शब्दके श्रावणत्वधर्मका अपकर्ष अर्थात् अभाव दिखाकर खण्डन करना अपकर्षसमा जाति है। ६८५. दृष्टान्त और साध्य में समानता होनी चाहिए, अतः यदि साध्य वर्ण्य अर्थात् कथन करनेके योग्य-सिद्ध करनेके योग्य असिद्ध है तो दृष्टान्तको भी असिद्ध होना चाहिए इस तरह 'वर्ण्य'का प्रसंग देकर खण्डन करना वर्ण्यसमा जाति है। यदि दृष्टान्त अवर्ण्य अर्थात् सिद्ध करने योग्य नहीं है स्वयं प्रसिद्ध है तो साध्यको भी स्वयंसिद्ध होना चाहिए, इस तरह 'अपये का प्रसंग देकर खण्डन करना अवयंसमा जाति है। ख्यापनीय अर्थात् जिसका कथन करना है, जिसे सिद्ध करना है उसे वर्ण्य कहते हैं। जो सिद्ध करनेके योग्य न होकर स्वयंसिद्ध है वह अवर्ण्य है। साध्यधर्म वर्ण्य-असिद्ध होता है तथा दृष्टान्तधर्म अवर्ण्य-प्रसिद्ध । साध्यमें अवर्ण्यत्व अर्थात् प्रसिद्धत्वका तथा दृष्टान्तमें वर्ण्यत्व अर्थात् असिद्धत्वका प्रसंग देना वर्ण्यसमा-अवय॑समा जातियां हैं । प्रतिवादी कहता है कि-'शब्दमें जैसे असिद्ध कृतकत्वादि धर्म हैं वैसे घड़ेमें नहीं हैं तथा घड़ेमें जैसे प्रसिद्ध कृतकत्वादि धर्म हैं वैसे शब्दमें नहीं पाये जाते । साध्यधर्म और दृष्टान्तधर्ममें तो पुरीपूरी समानता होनी चाहिए। पर यहां तो उलटा ही देखा जा रहा है; 'क्योंकि जैसे प्रसिद्ध कृतकत्वादिधर्म घडे में हैं वैसे शब्दमें नहीं पाये जाते। घडेको कुम्हार उत्पन्न करना है अतः घडे में कुम्हारसे उत्पन्न होनारूप कृतकत्व है जो कि प्रसिद्ध है पर शब्द तो तालु, ओठ आदिके व्यापारसे उत्पन्न होता है, अतः उसमें ताल्वादि व्यापारजन्यत्वरूप विलक्षण ही कृतकता है जो कि असिद्ध है।' ६८६. दूसरे धर्मों के विकल्प उठाकर खण्डन करना विकल्पसमा जाति है। जैसे -- कोई कृत्रिम वस्तु नरम देखी जाती है जैसे रूईकी शय्या आदि, कोई कुल्हाड़ी आदिकी तरह कठिन भी देखी जाती है, उसी तरह कोई कृत्रिम वस्तु अनित्य हो जैसे घड़ा आदि तथा कोई नित्य भी हो जाय जैसे कि शब्द आदि । इस प्रकार कृतकवस्तुमें मृदु कठिन आदि विकल्पोंको उठाकर साध्य में विपरीतधर्म दिखाना विकल्पसमा जाति है। १. "वावाभ्यां प्रत्यवस्थानं वावर्ण्यसमे जाती भवतः । ख्यापनीयो वर्ण्यः साध्यधर्मः। तद्विपर्ययादवर्ण्यः सिद्धो दृष्टान्तधर्मः । तावेतो ववियों साध्यदृष्टान्तधौं विपर्यस्यन् वावर्ण्यसमे जाती प्रयुङ्क्ते ।" -न्यायक. पू.१८। २. तादृक् च घट-आ., क.। ३. "धर्मान्तरविकल्पेन प्रत्यवस्थानं विकल्पसमा जातिः"-न्यायक. पृ. १८ । दुधास्तवमी विषयस्यन् अवियतन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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