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________________ -का. ३१. १८४] नैयायिकमतम् । १२१ ६८२. तत्र साधम्र्येण प्रत्यवस्थानं साधर्म्यसमा जातिर्भवति । अनित्यः शब्दः कृतकत्वात् घटवदिति प्रयोगे कृते साधम्र्यप्रयोगेणैव प्रत्यवस्थानम् । यद्यनित्यघटसाधात्कृतकत्वावनित्यः शब्दः इष्यते, तहि नित्याकाशसाधादमूर्तत्वान्नित्यं प्राप्नोतीति । ___६८३. वैधपेण प्रत्यवस्थानं वैधर्म्यसमा जातिः, अनित्यः शब्दः कृतकत्वात्, घटवदित्यत्रैव प्रयोगे वैधघेणोक्ते प्रत्यवस्थानम् । नित्यः शब्दोऽमूर्तत्वात्, अनित्यं हि मूतं दृष्टं, यथा घटावीति । यदि हि नित्याकाशवैधात्कृतकत्वादनित्य इष्यते, तहि घटाद्यनित्यवैधावमूर्तत्वान्नित्यः प्राप्नोति, विशेषाभावादिति २। ६८४. उत्कर्षापकर्षाभ्यां प्रत्यवस्थानमुत्कर्षापकर्षसमे जातो भवतः । तत्रैव प्रयोगे दृष्टान्तसाधयं किंचित्साध्यमिण्यापादयन्नुत्कर्षसमां जाति प्रयुक्ते । यदि घटवत्कृतकत्वादनित्यः शब्दस्तहि घटवदेव मूर्तोऽपि भवेत् । न चेत् मूर्तो घटवदनित्योऽपि मा भूदिति शब्दे धर्मान्तरोत्कर्षमापादयति ३। अपकर्षस्तु घटः कृतकः सन्नश्रावणो दृष्टः, एवं शब्दोऽपि भवतु । ८२. साधर्म्यसे हेतुका उपसंहार करनेपर साधयं अर्थात् अन्य दृष्टान्तको समानता दिखाकर खण्डन करना साधर्म्यसमा जाति है। यथा, 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृतक हैकृत्रिम है जैसे कि घड़ा' इस तरह साधर्म्यदृष्टान्त देकर हेतुका उपसंहार करनेपर इसका खण्डन करनेके लिए यह कहना कि-'यदि कृतकत्वरूप धर्मकी दृष्टिसे घड़े और शब्दमें समानता होनेके कारण घड़ेके समान शब्द अनित्य है तो अमूर्तत्व धर्मकी अपेक्षा आकाश और शब्दमें भी समानता है, इसलिए आकाशकी तरह शब्दको भी नित्य मानना चाहिए।' साधर्म्यसमा जाति है। ६८३. वैधय॑-व्यतिरेकधर्मके द्वारा हेतुका उपसंहार करनेपर अन्य दृष्टान्तका वैधर्म्य दिखलाकर ही खण्डन करना वैधर्म्यसमा जाति है। जैसे 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह कृत्रिम है जैसे घट' इसी प्रयोगका 'जो अनित्य नहीं है वह कृत्रिम भी नहीं जैसे आकाश' इस प्रकार वैधHदृष्टान्त देकर उपसंहार करनेपर प्रतिवादीका यह कहना कि-'नित्य आकाशसे कृत्रिमत्वरूप विलक्षणता होने के कारण शब्द अनित्य है ती घटादि अनित्य पदार्थोंसे भी जो कि मूर्त हैं, अमूर्तत्वरूप विलक्षणता शब्दमें पायी जाती है अतः शब्दको नित्य होना चाहिए। क्योंकि आकाशको विलक्षणता तथा घड़ेकी विलक्षणतामें साधकत्वरूपसे कोई विशेषता नहीं है या तो दोनों साधक हों या दोनों ही असाधक ।' वैधय॑समा जाति है। ६८४. दृष्टान्तकी समानतासे उसीके किसी अप्रकृतधर्मका साध्यमें उत्कर्ष-सद्भावका प्रसंग देकर खण्डन करना उत्कर्षसमा जाति है तथा दृष्टान्तकी समानतासे साध्यके किसी धर्मका अपकर्ष-अभाव दिखलाकर खण्डन करना अपकर्षसमा जाति है। 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह घड़ेकी तरह कृत्रिम है' इसी प्रयोग में दृष्टान्तकी समानतासे किसी अप्रकृतधर्मका साध्यमें आपादन करनेवाला प्रतिवादी उत्कर्षसमा जातिका प्रयोग करनेवाला होता है। वह कहता है कि-'यदि घड़ेकी तरह कृत्रिम होनेसे शब्द अनित्य है तो शब्दको घड़ेकी तरह मूर्तीक भी होना चाहिए । यदि मूर्तीक नहीं है तो घड़ेकी तरह अनित्य भी न हो।' इस तरह शब्दमें मूर्तत्वरूप धर्मान्तरका उत्कर्ष दिखाकर खण्डन करनेकी चेष्टा की गयी है। अपकर्षसमा-'कृत्रिम घड़ा अश्रावण १. “साधयंवैधाभ्यामुपसंहारे तद्धर्मविपर्ययोपपत्तेः साधर्म्यवैधर्म्यसमौ ।" -न्यायसू. ५०२। "साधर्येण समवस्थानं साधम्यसमा जातिर्भवति । वैधhण प्रत्यवस्थानं वैधय॑समा जातिभवति ।" -न्यायक पृ. १७ । २. त्वान्नित्यत्वं प्रा-आ.। ३.- वैधम्र्येणव भ. २। ४. घटादीनि म. १, २ आ.। ५.-त्यत्वं प्रा-पा.। ६. "उत्कर्षारकर्षाभ्यां प्रत्यवस्थानमुत्कर्षापकर्षसमे जाती भवतः ।" --न्यायक.पू. १७। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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