________________
- का० ३१. ६७९]
नैयायिकमतम् ।
११९
२
इछलम्। तत्त्रिविधं ' वाक्छलं सामान्यच्छलमुपचारच्छलं च । परोक्तेऽर्थान्तरकल्पना वाक्छलम् । यथा नव्यः कम्बलोऽस्येत्यभिप्रायेण नवकम्बलो माणवक इत्युक्ते छलवाद्याह, कुतोऽस्य नवसंख्या: कम्बला इति ॥ १॥
$७९ संभावनयातिप्रसङ्गिनोऽपि सामान्यस्योपन्यासे हेतुत्वारोपणेन तन्निषेधः सामान्यच्छलम् । यथा अहो नु खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इति ब्राह्मणस्तुतिप्रसंगे कश्चिद्वदति संभवति ब्राह्मणे विद्याचरण संपदिति । तच्छलवादी ब्राह्मणत्वस्य हेतुत्वमारोप्य निराकुर्वन्नभियुङ्क्ते । व्रात्येनानैकान्तिकमेतत्, यदि हि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपद्भवति, तदा व्रात्येऽपि सा भवेत् । व्रात्योऽपि ब्राह्मण एवेति ॥ २ ॥
द्वारा कहे गये वचनों में अपनी कपोलकल्पनासे दूसरा अर्थ कल्पित करके उसके वचनका खण्डन करना छल है । छल तीन प्रकारका है -१ वाक् छल, २ सामान्य छल, ३ उपचार छल । दूसरे के द्वारा कहे गये वचनोंका अर्थ बदलकर भिन्न अर्थकी कल्पना करना वाक्छल है । जैसे 'यह लड़का नव कॅम्बल लिये है' यहाँ छलवादी, 'नूतन' अर्थ में प्रयोग किये 'नव' शब्दका जान-बूझकर 'नवीन' अर्थकी अपेक्षाकर 'नो' अर्थ करके कहता है कि 'इसके नो ९ कम्बल कहाँ हैं ?' इस तरह अनेकार्थक शब्दों का मनमाना अर्थ बदलना वाक्छल है ।
$ ७९. सम्भावना मात्र से कही गयी बातमें आये हुए सामान्यधर्मको अविनाभावी हेतु मानकर उसका निषेध करना सामान्य छल है । सामान्य धर्म अतिप्रसंगी अर्थात् विवक्षित विशेष धर्म के अभाव में भी रहनेवाला होता है । यथा, 'अहो ! यह ब्राह्मण विद्या और आचरण से सम्पन्न है' इस तरह विद्या और चारित्रकी बहुलता देखकर सम्भावना मात्रसे ब्राह्मणकी स्तुतिके प्रसंग में उक्त वाक्य कहा गया है। इसमें वाक्य तो ब्राह्मणत्व जातिसे विशिष्ट व्यक्तिमें विद्या और आचरणकी मात्र सम्भावना की गयी है, ब्राह्मणत्व रूप सामान्य धर्मको विद्या और आचरणके सद्भावमें हेतु नहीं बताया है । परन्तु छलवादों ब्राह्मणत्वरूप अति सामान्य अर्थात् विवक्षित विद्यादि युक्तत्वरूप विशेषके अभाव में रहनेवाले सामान्यको अविनाभावी हेतु मानकर उस वाक्यका इस प्रकार खण्डन करता है - 'देखो' व्रात्य (-जिस द्विजका संस्कार नहीं हुआ ऐसा असंस्कृत ब्राह्मण - ) भी जाति ब्राह्मण तो है पर उसमें न तो विद्या ही है और न चारित्र हो । यदि ब्राह्मण में विद्याचरण सम्पत्ति होती है तो व्रात्य में भी होनी चाहिए, व्रात्य भी आखिर ब्राह्मण तो है ही ।
१. " वचनविघातोऽर्थ विकल्पोपपत्त्या छलम् ।" न्यायसू. १।२।१० । " तत्र परस्य वदतोऽर्थविकल्पोपपादनेन वचनविघातः छलम्।" न्यायकलि. पृ. १६ । २. तत्त्रिविधम् वाक्छलं सामान्य छलमुपचारछलं चेति ।" - न्यायसू. १।२।१२ । ३. " अविशेषाभिहितेऽर्थे वक्तुरभिप्रायादर्थान्तरकल्पना वाक्छलम् । नवकम्बलोऽयं माणवक इति प्रयोगः । अत्र नत्रः कम्बलोऽस्य इति वक्तुरभिप्रायः, विग्रहे तु विशेषो न समासे । तत्रायं छलवादी वक्तुरभिप्रायादविवक्षितमन्यार्थं नव कम्बला अस्येति तावदभिहितं भवता इति कल्पयति । कल्पयित्वा च असंभवेन प्रतिषेधति एकोऽस्य कम्बलः कुतो नव कम्बला इति ।” –न्यायमा ११२।१२ । ४. “ संभवतोऽर्थस्य अतिसामान्ययोगात् असंभूतार्थकल्पनासामान्यछलम् ॥१३॥ अहो खल्वसौ ब्राह्मणो विद्याचरणसंपन्न इत्युक्ते कश्चिदाह- संभवति ब्राह्मणे विद्याचरणसंपदिति, अस्य वचनस्य विघातोऽर्थविकल्पोपपत्त्या असंभूतार्थविकल्पनया व्रियते यदि ब्राह्मणे विद्याचरणसंपत् संभवति व्रात्येऽपि संभवेत्, व्रात्योऽपि ब्राह्मणः सोऽप्यस्तु विद्याचरणसंपन्न इति ।" —न्यायभा. ३।२।१३ । ५. -भिसंयुक्ते भ. २ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org