________________
११८ षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० ३१.६७८दिति । हेतौ प्रयोगकालः प्रत्यक्षागमानुपहतपक्षपरिग्रहसमयस्तमतीत्यापविष्टः प्रयुक्तः प्रत्यक्षागमविरुद्ध पक्षे वर्तमानः इत्यर्थः, हेतुः कालात्ययापदिष्टः, अनुष्णोऽग्निः कृतकत्वात, ब्राह्मणेन सुरा पेया 'द्रवद्रव्यत्वात् क्षीरवदिति ४। स्वपक्षसिद्धाविव परपक्षसिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसमः, प्रकरणे पक्षे प्रतिपक्षे च तुल्य इत्यर्थः। अनित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात्, सपक्षवदित्येकेनोक्ते द्वितीयः प्राह यद्यनेन प्रकारेणानित्यत्वं साध्यते, तहि नित्यतासिद्धिरप्यस्तु, यथा नित्यः शब्दः पक्षसपक्षयोरन्यतरत्वात् सपक्षवदिति, अथवानित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेर्घटवत्, नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेराकाशवदिति । न चैतेष्वन्यतरदपि साधनं बलीयो यदितरस्य बाधकमुच्यते । निग्रहस्थानान्तर्गता अप्यमी हेत्वाभासा न्यायप्रविवेकं कुर्वन्तों वादे वस्तुशुद्धि विदधतीति पृथगेवोच्यन्ते।
६७८. "छलं कूपो नवोदकः" इति । परोपन्यस्तवादे स्वाभिमतकल्पनया वचनविघातजैसे शब्द अनित्य है क्योंकि वह प्रमेय है । प्रमेयत्व हेतु नित्य या अनित्य सभी पदार्थोंमें रहता है । हेतुके प्रयोगका समय अनुकूल तो वह है जब वह हेतु प्रत्यक्ष और आगमके द्वारा अबाधित पक्षमें प्रयुक्त हो । पर जब वह हेतु प्रत्यक्ष और आगमके द्वारा अबाधित पक्षमें प्रयुक्त होता है तब वह अपने कालके बीत जानेपर प्रयुक्त होनेसे कालात्ययापदिष्ट हो जाता है। तात्पर्य यह कि प्रत्यक्ष और आगमसे बाधित पक्षमें प्रयुक्त होनेवाला हेतु कालात्ययापदिष्ट है । जैसे 'अग्नि ठण्डी है क्योंकि वह कृतक अर्थात् कार्य है' यहां कृतकत्व हेतु प्रत्यक्षबाधित पक्षमें प्रयुक्त हुआ है। तथा 'ब्राह्मणको मदिरा पोनी चाहिए' 'क्योंकि वह पतला द्रव्य है जैसे कि दूध' यह हेतु आगमबाधित पक्ष में प्रयुक्त हआ है अतः दोनों कालात्ययापदिष्ट हैं। स्वपक्षसिद्धिकी तरह परपक्षकी सिद्धि में (स्वपक्षका अभाव सिद्ध करने में ) भी समान बलवाले त्रिरूप हेतुकी उपस्थिति होनेपर प्रथमहेतु प्रकरणसम-समान प्रक्रियावाला हो जाता है । प्रकरण अर्थात् पक्ष और प्रतिपक्ष दोनोंमें सम अर्थात् तुल्य बलवाला हेतु । जैसे, एकवादीने 'शब्द अनित्य है क्योंकि वह अनित्यपक्ष और अनित्यसपक्ष में से किसी एकमें शामिल है जैसे कि सपक्ष ।' इस हेतुका प्रयोग किया । तब प्रतिवादीसे न रहा गया । वह बोल ही उठा कि यदि इस प्रणालीसे तुम शब्दको अनित्य सिद्ध करते हो तब ठीक इसी तरह शब्दमें नित्यताकी भी सिद्धि होनी चाहिए। यथा 'शब्द नित्य है' क्योंकि वह नित्य पक्ष तथा अनित्य ही सपक्ष, दोमें से किसी एक रूप है, जैसे कि सपक्ष । अथवा, एक वादीने कहा कि-'शब्द अनित्य है क्योंकि उसमें नित्यत्व धर्म नहीं पाया जाता, जैसे कि घटमें।' तब प्रतिवादी कहता है कि-'शब्द नित्य है, क्योंकि उसमें अनित्यत्व धर्म नहीं पाया जाता जैसे कि आकाशमें' इस तरह समान बलवाले प्रतिपक्षी हेतुके मिलनेपर पहला हेतु प्रकरणसम हो जाता है। इन दोनों हेतुओंमें कोई एक साधन दूसरेसे बलवान् नहीं है जिससे वह दूसरेका बाधक हो सके । यद्यपि हेत्वाभास निग्रहस्थानोंमें अन्तर्भूत हैं फिर भी इनके द्वारा वादमें न्यायका विवेक होकर वस्तु शुद्धि होती है, अतः इनका पृथक् निरूपण किया गया है।
७८. 'इस कुंएमें नवोदक अर्थात् नया जल है यह छल है। यहां नवोदक शब्द नये पानीके अभिप्रायसे कहा गया है, परन्तु उसका नौ प्रकारके जल यह अर्थ करना छल है । वादीके
१. "प्रत्यक्षागमविरुद्धः कालात्ययापदिष्टः । अबाधितपरपक्षपरिग्रहो हेतुप्रयोगकालः तमतोत्यासावुपदिष्ट इति । अनुष्णोऽग्निः कृतक्त्वात् घटवदिति प्रत्यक्षविरुद्धः। ब्राह्मणेन सुरा पेया द्रवद्रव्यत्वात् क्षोरवत् इत्यागमविरुद्धः।" -न्यायक. पृ. १५। "प्रमाणबाधिते पक्षे वर्तमानो हेतुः कालात्ययापदिष्टः ।" न्यायसा. पृ.७। २. द्रवत्वात भ. २। ३. "स्वपक्षपरपक्षसिद्धावपि त्रिरूपो हेतुः प्रकरणसमः।" न्यायसा. पृ.., न्यायक. पृ. १५। ४. न्यायविवेक आ., क. । ५. कुर्वतो क.। कुर्वन्ति वादे भ.२। ६. पृथगत्रोच्य-प. १, २, भ. १, २।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org