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षड्दर्शनसमुच्च
[ का० ३० ९७३ -
९ ७३. व्याख्या - या तु या पुनर्वजिगीषुकथा विजयाभिलाषिभ्यां वादिप्रतिवादिभ्यां प्रारब्धा प्रमाणगोष्ठी, कथंभूता, छलानि जातयश्च वक्ष्यमाणलक्षणानि, आदिशब्दान्निग्रहस्थानादिपरिग्रहः, एतैः कृत्वा दूषणं परोपन्यस्तपक्षावेर्दोषोत्पादनं यस्यां सा छलजात्याविदूषणा, स विजिगीषुकथारूपो जल्पः । 'उदाहृत' इति पूर्वश्लोकात्संबन्धनीयम् ।
९ ७४. ननु छलजात्यादिभिः परपक्षादेर्दूषणोत्पादनं सतां कर्तुं न युक्तमिति चेत्, न । सन्मार्गप्रतिपत्तिनिमित्तं तस्याभ्यनुज्ञातत्वात्' । अनुज्ञातं हि स्वपक्षस्थापनेन सन्मार्गप्रतिपत्तिनिमित्ततया छलजात्याद्युपन्यासैरपि परप्रयोगस्य दूषणोत्पादनम् । तथा चोक्तम्
"दुः शिक्षित कुतर्कांशलेशवाचालिताननाः ।
शक्याः किमन्यथा जेतुं वितण्डाटोपे मण्डिताः ॥ १॥ गतानुगतिको लोकः कुमागं तत्प्रतारितः ।
मार्गादिति छलादीनि प्राह कारुणिको मुनिः ||२||" [ न्यायम, प्रमा. पू. ११] इति । संकटे प्रस्तावे च सति छलादिभिरपि स्वपक्षस्थापनमनुमतम् । "परविजये हि धर्मध्वंसादिदोषसंभवः, तस्माद्वरं छलादिभिरपि जयः ।
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$ ७३. जो कथा विजयके अभिलाषी वादो तथा प्रतिवादी द्वारा प्रारम्भ की जाती है, तथा जिसमें छल, जाति और निग्रहस्थान जैसे असदुपायोंसे प्रतिपक्ष में दूषणों का उद्भावन किया जाता हो वह प्रमाण गोष्ठी जल्प कही जाती है । इस श्लोक में 'उदाहृतः' क्रियाका पूर्व श्लोकसे अनुवर्तन कर लेना चाहिए ।
६ ७४. शंका- सभ्य सत्पुरुषोंको छल, जाति तथा निग्रहस्थान जैसे असदुत्तरोंसे परपक्ष में दूषण देना तो किसी भी तरह उचित नहीं मालूम होता ।
उत्तर - आपका कहना ठीक है, परन्तु सन्मार्गकी प्रतिपत्ति या रक्षा करनेके लिए छल आदिका भी अपवाद रूपसे आश्रय करना ही पड़ता है । स्वपक्षके स्थापनके द्वारा सन्मार्गकी प्रतिपत्ति के लिए छल, जाति आदिका प्रयोग करके भी परपक्षका खण्डन करनेकी शास्त्रकारोंने अनुज्ञा दी है । कहा भी है
" दुरभिप्रायसे सीखे गये छोटे-मोटे कुतर्कोंके बलपर अत्यन्त बकवाद करनेवाले, अथवा दुःशिक्षित होने के कारण कुतर्कजालकी कल्पना करके जो अत्यन्त बकवास करते हैं, तथा जो वितण्डा - निरर्थक वाग्जालके द्वारा परपक्षको फटाटोपसे घूर्ततापूर्वक खंण्डन करने में कुशल हैं, क्या ऐसे वाचाल कुवादी 'शठे शाठ्यम्' वाली नीतिके बिना भी जीते जा सकते हैं? इनके जीतने के लिए तो छलादि उपायोंका आलम्बन करना ही पड़ेगा। यदि इन वाचाट कुवादियोंसे सन्मार्गकी रक्षा न की जायेगी; तब लोकमें धर्मंकी हँसी होगी । जनता तो गतानुगतिक होती है उसमें विवेक कम होता है, वह तो प्रवादका हो अनुसरण करती है । अत: 'मूढ़ जनता कुवादियोंकी वाचालतासे बहककर कुमार्गपर न जावे' इसी सन्मार्ग रक्षण के उद्देश्यसे दयालु मुनिने छल आदि उपायोंका भी उपदेश दिया है” ॥१-२|| इस तरह संकटके समय तथा प्रतिवादीके द्वारा शास्त्रार्थंका प्रस्ताव उपस्थित किये जाने पर छल आदिके द्वारा भी परपक्षका खण्डन कर स्वपक्ष स्थापनकी अनुमति है । यदि प्रतिवादी अपनी वाचाटताके कारण जीत जाता है, तब धर्मका नाश एवं सन्मार्गका अपवाद आदि अवश्यम्भावी है अतः यह उचित है कि छल आदिसे भी प्रतिवादीको जीतकर धर्मको अपवाद से बचाकर सन्मार्गको संरक्षा की जाय ।
१. " मुमुक्षुरपि क्वचित्प्रसङ्गे तदुपयोगात् ।" न्यायम. प्रमे पृ. १५२ । २. - पंडिताः भ. २ । ३. मार्गादि आ., क. । ४. च प्रतिछलादि भ. २ । ५. हि न धर्म - आ., क., प. १, २, भ. १ ।
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