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-का० ३०. ६ ७२ ]
नैयायिकमतम् । ४।२।५० ] इति । "यथोक्तलक्षणोपपन्नश्छलजातिनिग्रहस्थानसाधनोपालम्भो जल्पः । स प्रतिपक्षस्थापनाहीनो वितण्डा ।" [ न्यायसू. २२।२, ३ ] इति । वावजल्पवितण्डानां व्यक्तिः ।
७१. अथ प्रकृतं प्रस्तुमः आचार्योऽध्यापको गुरुः, शिष्योऽध्येता विनेयः, तयोराचार्यशिष्ययोः 'पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहात्' पक्षः पूर्वपक्षः प्रतिज्ञादिसंग्रहः, प्रतिपक्ष उत्तरपक्षः पूर्वपक्षप्रतिपन्थी पक्ष इत्यर्थः, तयोः परिग्रहात्स्वीकारात् अभ्यासस्य हेतुरभ्यासकारणम् या कथा प्रामाणिकी वार्ता असौ कथा वाद उदाहृतः कीर्तितः । आचार्यः पूर्वपक्षं स्वीकृत्याचष्ट शिष्यश्चोत्तरपक्षमुररीकृत्य पूर्वपक्षं खण्डयति। एवं पक्षप्रतिपक्षसंग्रहेण निग्राहकसभापतिजयपराजयच्छलजात्याद्यनपेक्षतयाभ्यासार्थ यत्र गुरुशिष्यौ गोष्ठों कुरुतः, स वादो विज्ञेयः॥२९॥ ७२. अथ जल्पवितण्डे विवृणोति
विजगीषुकथा या तु छलजात्यादिदूषणा । स जल्पः सा वितण्डा तु या प्रतिपक्षवर्जिता ॥३०॥
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वादके लक्षणमें कहे गये 'प्रमाण और तर्कसे साधन और दूषण होता है, सिद्धान्तसे अविरुद्ध, पंचावयवसे यक्त, तथा पक्ष और प्रतिपक्षका जिसमें परिग्रह किया जाता है। इन विशेषणोंसे जो सहित हो, तथा जिसमें छल, जाति और निग्रहस्थान जेसे असदुपायोंसे भी स्वपक्षसाधन तथा परपक्ष दूषण किया जाता हो उसे जल्प कहते हैं। जिस जल्पमें प्रतिपक्ष-(प्रतिवादीके पक्षकी अपेक्षा वादीका पक्ष प्रतिपक्ष-) अर्थात् अपने पक्षका स्थापन न करके केवल प्रतिवादीका खण्डन ही खण्डन किया जाता है, उस जल्पको वितण्डा कहते हैं। यह वाद, जल्प तथा वितण्डाका स्पष्ट स्वरूप है।
६७१. अब प्रकृत श्लोकका व्याख्यान करते हैं-आचार्य-अध्यापक गुरु, शिष्य-अध्ययन करनेवाला विनीत विद्यार्थी, ये दोनों जब पक्ष अर्थात् पूर्वपक्ष जिसमें अपने सिद्धान्तके स्थापनकी प्रतिज्ञा आदि होती है, और प्रतिपक्ष अर्थात् उत्तरपक्ष, पूर्वपक्षका खण्डन करनेवाला पक्ष, को स्वीकार करके अभ्यास करनेके लिए जो कथा-प्रामाणिक चर्चा करते हैं, वह कथा वाद कही जाती है। आचार्य किसी पूर्वपक्षको लेकर उसका स्थापन करता है, शिष्य उत्तरपक्ष लेकर अपनी तर्क शक्तिको बढ़ानेके लिए अपनी समझके अनुसार उसका खण्डन करता है । इस तरह गुरु और शिष्य पक्ष और प्रतिपक्ष रूपसे अभ्यास करनेके लिए जो गोष्ठी-तत्त्व चर्चा करते हैं वह वाद है। इस तत्त्वचर्चा में जय-पराजयको व्यवस्था देनेवाले सभापतिकी, येन केन प्रकारेण जय-पराजय प्राप्तिके उपायभूत छल, जाति आदि असत्प्रयोगोंको तथा जय और पराजयको कोई अपेक्षा नहीं होती है। यह तो गुरु-शिष्यको तत्त्वज्ञानगोष्ठी है ॥२९॥
७२. अब जल्प और वितण्डाका व्याख्यान करते हैं
जिसमें छल, जाति आदिसे परपक्षमें दूषण दिये जाते हों वह विजिगीषुकथा जल्प है। जिस जल्पमें वादी अपना पक्ष स्थापित न कर केवल परपक्षमें दूषण हो दूषण देता है वह वितण्डा है ॥३०॥
१. -कथायां तु छलजात्यादिदूषणाभ्यासः स भ. २। २. "स एव पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो विजिगीषया प्रयुक्तः छलजातिनिग्रहस्थानप्रयोगबहुलो जल्पः । स्वपक्षसाधनोपन्यासहीनो जल्प एव वितण्डा भवति ।" -न्यायमा. पृ. १३ ।
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