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________________ ११४ षड्दर्शनसमुच्चये [ का. २९. ६ ६९ - दावर्थसंबन्धादनुक्तावपि वचन गम्येते, तेनात्र तो व्याख्यातौ । एवमन्यत्रापि मन्तव्यम् ॥२७-२८॥ ६ ६९. अथ वादतत्त्वमाह आचार्यशिष्ययोः पक्षप्रतिपक्ष परिग्रहात् । या कथाभ्यासहेतुः स्यादसौ बाद उदाहृतः ॥२९॥ ६७०. व्याख्या-वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कथा, सा द्विविधा, वीतरागकथा विजिगीषुकथा च । यत्र वीतरागेण गुरुणा सह शिष्यस्तत्त्वनिर्णयार्थ साधनोपालम्भौ करोति, साधनं स्वपक्षे, उपालम्भश्च परपक्षेऽनुमानस्य दूषणं, सा वीतरागकथा वादसंजयैवोच्यते। वादं प्रतिपक्षस्थापनाहीनमपि कुर्यात् । प्रश्नद्वारेणैव यत्र विजोगीषुजिगीषुणा सह लाभपूजाख्यातिकामो जयपराजयार्थ प्रवर्तते, वीतरागो वा परानुग्रहार्थ ज्ञानाङ्करसंरक्षणार्थं च प्रवर्तते, सा चतुरङ्गा वादिप्रतिवादिसभापतिप्राश्निकाङ्गा विजिगीषुकथा जल्पवितण्डासंज्ञोक्ता। तथा चोक्तम्"तत्त्वाध्यवसायसंरक्षणार्थ जल्पवितण्डे, बीजप्ररोहसंरक्षणार्थ कण्टकशाखावरणवत् ।" [ न्यायसू. और तत् सर्वनामका यद्यपि कथन नहीं होता फिर भी उनका प्रकरणसे अन्वय हो जाता है । इसीलिए यहां यत् और तत्का अनुगम करके व्याख्यान किया गया है ।।२७-२८॥ ६६९, अब वाद तत्त्वका कथन करते हैं शास्त्रार्थका अभ्यास करनेके लिए अथवा तत्त्वका अभ्यास करनेके लिए गुरु और शिष्य पक्ष-प्रतिपक्ष लेकर जो कथा-चर्चा-वार्ता करते हैं उसे वाद कहते हैं ॥ २९ ॥ ६७०, वादी तथा प्रतिवादीके द्वारा जिसमें पक्ष और प्रतिपक्षका ग्रहण किया जाय उसे कथा कहते हैं । कथा दो प्रकारकी है-१ वीतराग कथा, २ विजिगीषु कथा। जब वीतराग अर्थात् जय-पराजयकी इच्छा न रखनेवाले गुरुके साथ तत्त्व-निर्णयके लिए शिष्य अपने पक्षका साधन तथा प्रतिपक्षका उपालम्भ-खण्डन करता है तब वह वचनव्यापार वीतराग कथा कहलाता है। इस वीतराग कथाका ही नाम वाद है । इस वादमें प्रतिपक्षका स्थापन कोई आवश्यक नहीं है। एक ही पक्षमें शंका-समाधान करके तत्त्व-निर्णय किया जा सकता है। जहां एक जिगीष-जयकी इच्छा रखनेवाला-दूसरे विजिगीषु-विशेषरूपसे सवागुनी जीतनेकी इच्छा रखनेवालेके साथ कोई शर्त लगाकर अर्थलाभके लिए अथवा ख्यातिकी इच्छासे जय-पराजयके लिए शास्त्रार्थ करता है, वह विजिगीष कथा है। एक वीतराग व्यक्ति भी किसी वैतण्डिकके साथ तत्त्व-ज्ञानरूपी अंकुरके संरक्षणके लिए तथा परोपकारार्थ विजिगीषु कथामें प्रवृत्त होता है । इस विजिगीषु कथा में वादी, प्रतिवादी, सभापति तथा प्राश्निक ये चार अंग होते हैं। अतः यह चतुरंगवादके नामसे ख्यात है। इसी विजिगीषु कथाको जल्प और वितण्डा भी कहते हैं। कहा भी है "जैसे कि छोटे अंकुरोंकी रक्षाके लिए कांटोंकी बारी लगायी जाती है, उसी तरह तत्त्वज्ञानको सम्यक् प्रकारसे रक्षा करनेके लिए जल्प और वितण्डा नामक कथाएं होती हैं।" यथोक्तोपपन्न१. "प्रमाणतर्कसाधनोपालम्भः सिद्धान्ताविरुद्धः पञ्चावयवोपपन्नः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहो बादः ॥" -न्यायसू. १२।। २. "वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कथा। सा द्विविधावीतरागकथा विजिगीषुकथा चेति । यत्र वीतरागो वीतरागणव सह तत्त्वनिर्णयार्थ साधनोपालम्भी करोति सा वीतरागकथा वादसंज्ञयोच्यते । तं प्रतिपक्षहीनमपि वा कुर्यात् प्रयोजनायित्वेन । यथा शिष्यो गुरुणा सह प्रश्नद्वारेणवेति ।" -न्यायसा. पृ.१५। ३. "विजिगीषुर्विजिगीषुणा सह लाभपूजाख्यातिकामो जयपराजयार्थ प्रवर्तते सा विजिगीषकथा। वीतरागो वा परानुग्रहार्थं ज्ञानाफूररक्षणार्थं च प्रवर्तते सा चतरङ्गा। वादिप्रतिवादिसभापतिप्राश्निकाङ्गा। विजिगीषुकथा जल्लवितण्डासंज्ञोक्ता।" -न्यायसा. पृ. १६। ४. 'कण्टकशाखापरिचरणवत् इति प्रत्यन्तरे-आ. टि. । कण्टकशाखापरिचरणवत् क., प. १, २, भ. १, २ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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