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________________ -का० २८.६६८] नैयायिकमतम् । रेकमुखेन यथा, यो यः कृशानुमान भवति, स स धूमवान्न भवति, यथा जलमित्यादि । उपनयो हेतोरुपसंहारकं वचनम्, धूमवांश्चायमित्यादि । 'निगमनं हेतूपदेशेन साध्यधर्मोपसंहरणम्, धूमवत्त्वात्कृशानुमानित्यादि। ___ ६७. अथ तर्कतत्त्वम् । 'तर्कः सन्देहोपरमे भवेत् । सम्यग्वस्तुस्वरूपानवबोधे किमयं स्थाणुर्वा पुरुषो वेति संदेहः संशयस्तस्योपरमे व्यपगमे तर्कोऽन्वयधर्मान्वेषणरूपो भवेत् । कथमित्याह-'यथा काकादीत्यादि' यथेत्युपदर्शने काकादिसंपातात् वायसंप्रभृतिपक्षिसंपतनादुपलक्षणत्वान्निश्चलत्ववल्यारोहणादिस्थाणधर्मेभ्यश्चात्रारण्यप्रदेशे स्थाणुना कोलकेन भाव्यं भवितव्यम् । हिशब्दोऽत्र निश्चयोत्प्रेक्षणार्थो द्रष्टव्यः। संप्रति हि वनेऽत्र मानवस्यासंभवात्स्थाणुधर्माणामेव दर्शनाच्च स्थाणुरेवान घटत इति । तदुक्तम्-'आरण्यमेतत्सवितास्तमागतो न चाधुना संभवतीह मानवः। ध्रुवं तदेतेन खगादिभाजा, भाव्यं स्मरारातिसमाननाम्ना ॥१॥ इत्येष तर्कः। $ ६८. अथ निर्णयैतत्त्वमाह-'ऊर्ध्वमित्यादि' पूर्वोक्तस्वरूपाभ्यां संदेहताभ्यामूर्ध्वमनन्तरं यः प्रत्ययः स्थाणुरेवायं पुरुष एव वेति प्रतीतिः स निर्णयो निश्चयो मतोऽभीष्टः। यत्तवाला नहीं है वह धूमवाला भी नहीं जैसे जल' यह व्यतिरेकात्मक कथन है । हेतुका उपसंहार करनेवाले वचन उपनय कहलाते हैं, जैसे 'यह भी धूमवाला है।' हेतुका कथन करनेके अनन्तर साध्य धर्मके उपसंहार-दुहरानेको निगमन कहते हैं, जैसे 'चूंकि यह भी धूमवाला है अतः अग्निवाला है।' ६६७. वस्तुके यथार्थ स्वरूपका बोध न होनेसे 'यह स्थाणु-ठूठ है अथवा पुरुष ?' यह सन्देह होता है। जब यह सन्देह बहुत कुछ शान्त हो जाता है तब ढूंठमें रहनेवाले अन्वयरूप धर्मोको खोजनेवाले सम्भावनात्मक तर्कका उदय होता है । जैसे-उसपर कौए आदिको बैठा देखकर अर्थात् कौआ चिडिया आदि पक्षियोंका उसपर बैठना, उसके आस-पास उडना. उसका निश्चलडुले जैसेका तैसा स्थिर रहना, उसपर लताओंका लिपटना इत्यादि स्थाणुगत धर्मोंको देखकर 'इस जंगल में ऐसा लूंठ ही हो सकता है, इसे ढूंठ अवश्य ही होना चाहिए' ऐसा भवितव्यता प्रत्ययरूप तर्क होता है। 'हि' शब्द निश्चयकी ओर झुकनेका संकेत करता है-'इसे अवश्य ही, स्थाणु होना चाहिए'। इस समय इस निर्जन वनमें मनुष्यको सम्भावना तो है ही नहीं, तथा स्थाणुके धर्म ही इसमें पाये जाते हैं अतः यह स्थाणु ही हो सकता है, यहाँ स्थाणुको सम्भावना ही अधिक है। कहा भी है "यह डरावना जंगल है, सूर्य भी इस समय अस्ताचलपर पहुंच चुका है, अन्धेरा हो चला है, इसलिए यहां इस समय मनुष्यकी सम्भावना तो है नहीं। फिर, इसके ऊपर पक्षी आकर निःशंक भावसे बैठे हुए चहक रहे हैं, अतः अवश्य ही इसे स्थाणु-ठूठ होना चाहिए। यह अवश्य हो स्मराराति कामदेवको भस्म करानेवाले शंकरके समान नामवाला पर्यायवाची स्थाणु है। स्थाण शंकरका पर्यायवाची है ॥ १॥" ६८. पूर्वोक्त सन्देह तथा तर्कके अनन्तर 'यह स्थाणु ही है' अथवा 'यह पुरुष ही है' ऐसा जो एककोटिक निश्चय होता है उस अवधारणात्मक प्रत्ययको निर्णय कहते हैं । कहीं-कहीं यत् १. "उदाहरणापे क्षस्तथेत्युपसंहारो न . तथेति वा साध्यस्योपनयः ॥" -न्यायसू. १।११३८ । २. "हेत्वपदेशात प्रतिज्ञायाः पुनर्वचनं निगमनम् ॥ -न्यायसू. १०१।३१। ३. "अविज्ञाततत्वेऽर्थे कारणोपपत्तितस्तत्त्वज्ञानार्थमूहस्तकः।"-न्यायसू. ११४०“अविज्ञाततत्त्वे मिणि एकतरपक्षानुकूलार्थदर्शनेन तस्मिन् संभावनाप्रत्ययरूप ऊहस्तर्क उच्यते । यथा वाहके किप्रदेशे ऊर्ध्वत्वदर्शनात् पुरुषेणानेन भवितव्यमिति संभावनाप्रत्ययः।" -न्यायक, पृ. १३। ४. सप्रतिपक्षिसं-भ. २। ५.. इत्येवं तर्कः भ. २। ६. तर्कमाह भ.२। ७."विमृश्य पक्षप्रतिपक्षाम्यामर्थावधारणं निर्णयः॥"न्यायसू. ११४। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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