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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [का० २६.६६२प्रवर्तते तत्प्रयोजनमित्यर्थः । प्रयोजनमूलत्वाच्च प्रमाणोपन्यासप्रवृत्तेः प्रमेयान्तर्भूतमपि प्रयोजनं पृथगुपदिश्यते ॥२५॥ ६६२. अथ दृष्टान्तसिद्धान्तो व्याचिख्यासुराह 'दृष्टान्तस्तु भवेदेष विवादविषयो न यः । 'सिद्धान्तस्तु चतुर्भेदः सर्वतन्त्रादिभेदतः ॥२६॥ $ ६३. व्याख्या-दृष्टोऽन्तो निश्चयोऽत्रेति दृष्टान्तः, दृष्टान्तः पुनरेषोऽयं भवेत् । एष क इत्याह-य उपन्यस्तः सन् विवादविषयो वादिप्रतिवादिनोमिथो विरुद्धो वादो विवादः, तस्य विषयो गोचरो न भवति, वादिप्रतिवादिनोरुभयोः संमत एवानुमानादौ दृष्टान्त उपन्यस्तव्य इत्यर्थः। पञ्चस्ववयवेषु वक्ष्यमाणोऽपि दृष्टान्तः साध्यसाधनधर्मयोः प्रतिबन्धग्रहणस्थानमिति पृथगिहोपदिश्यते। तावदेव ह्यन्वयव्यतिरेकयुक्तोऽर्थः स्खलति, यावन स्पष्टदृष्टान्तावष्टम्भः । उक्तं च-"तावदेव चलत्यर्थो" मन्तुविषयमागतः । यावन्नोत्तम्भनेनैव दृष्टान्तेनावलम्ब्यते ॥१॥" ६४. 'सिद्धान्तस्तु' सिद्धान्तः पुनश्चतुर्भेदो भवेत् । कुत इत्याह-सर्वतन्त्रादिभेवतः सर्वतत्रा. दिभेदेन । प्रथमः सर्वतन्त्रसिद्धान्तः, आदिशब्दात्प्रतितन्त्रसिद्धान्तोऽधिकरणसिद्धान्तोऽभ्युपगमसे करणीय अर्थमें प्रवृत्ति की जाती है उसका नाम प्रयोजन है। यद्यपि इसका प्रमेयमें अन्तर्भाव हो जाता है फिर भी प्रमाण आदिका कथन तथा प्रवृत्ति प्रयोजन मूलक होती है अतः प्रमेयसे इसका पृथक् निर्देश किया गया है ।।२५।। ६६२. अब दृष्टान्त और सिद्धान्तका स्वरूप कहते हैं- ' जिसमें किसीको विवाद न हो ऐसा सबको सम्प्रतिपत्तिका विषयभूत अर्थ दृष्टान्त होता है। सर्वतन्त्र आदिके भेदसे सिद्धान्त चार प्रकारका है ॥२६॥ $ ६३. दृष्ट अर्थात् देखा गया है अन्त अर्थात् निश्चय जहाँ उसे दृष्टान्त कहते हैं। जिसके कहनेपर वादी तथा प्रतिवादी किसीको भी विवाद अर्थात् विरुद्धवाद न हो, जो दोनोंको समानरूपसे सम्मत हो वह प्रसिद्ध निर्विवाद पदार्थ दृष्टान्त है। अनुमान आदिमें ऐसे ही दृष्टान्तका कथन करना चाहिए । यद्यपि आगे कहे जानेवाले पंचावयवोंमें दृष्टान्त अन्तर्भूत है फिर भी दृष्टान्त साध्य और साधनके प्रतिबन्ध-अविनाभाव सम्बन्धके ग्रहण करनेका स्थान है इसलिए उसका पृथक् निर्देश किया गया है । अन्वय व्याप्ति या व्यतिरेक व्याप्तिमें तभी तक शंका रहती है जबतक कि स्पष्ट रूपसे प्रसिद्ध दृष्टान्तका उपन्यास नहीं किया जाता। कहा भी है "विचारक बुद्धिमें आया हुआ पदार्थ तभी तक चलायमान-सन्दिग्ध रहता है जब तक उसे दृष्टान्तरूपी साधनेवाले स्तम्भका सहारा नहीं मिलता।" ६४. 'यह ऐसा ही है' इस रूपसे निश्चित अर्थको सिद्धान्त कहते हैं। सिद्धान्त सर्वतन्त्र आदिके भेदसे चार प्रकारका माना जाता है। १. सर्वतन्त्र सिद्धान्त, २. प्रतितन्त्र सिद्धान्त, ३. अधिकरण सिद्धान्त, ४. अभ्युपगम सिद्धान्त । तन्त्रका अर्थ शास्त्र है। अपने शास्त्रमें माने गये १. लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्त ।" -न्यायसू. ११।२५। २. "अयमेवमिति प्रमाणमूलाभ्युपगमः विषयीकृतः सामान्यविशेषवानर्थः सिद्धान्तः ।"-न्यायक. पृ. ९। ३. "सर्वतन्त्रप्रतितन्त्राधिकरणाभ्युपगमसंस्थित्यर्थान्तरभावात् ।" -न्यायसू. १९३७ । ४.-न्नास्य दृष्टान्तोऽवष्टभ. २। ५. -त्यर्थमन्तविष-भ. २। ६. यावतोत्तम्भनेनैव भ.२। ७. -वलंवति- भ. २ । ८. -पगतश्च भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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