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________________ - का० २५. ६ ६१] नैयायिकमतम् । स्वरूपेणावस्थानम् । सुखदुःखयोविवेकेन हानस्याशक्यत्वात् दुःखं जिहासुः सुखमपि जह्याद् । यस्माज्जन्मजरामरणप्रबन्धोच्छेदरूपः परमः पुरुषार्थोऽपवर्गः, स च तत्त्वज्ञानादवाप्यते १२॥२४॥ ६५९. संशयप्रयोजनयोः स्वरूपं प्राह किमेतदिति संदिग्धः प्रत्ययः संशयो मतः। प्रवतेते तदर्थित्वात्तत्तु साध्यं प्रयोजनम् ॥२५॥ ६६०. व्याख्या-अयं किंशब्दोऽस्ति क्षेपे 'किसखा योऽभिद्रुह्यति' अस्ति प्रश्ने किं ते प्रियं' अस्ति निवारणे किं ते रुवितेन' अस्त्यपलापे 'किं तेऽहं धारयामि' अस्त्यनुनये कि तेऽहं प्रियं करोमि' अस्त्यवज्ञाने 'कस्त्वामुल्लापयते' अस्ति वितर्के "किमिदं दूरे दृश्यते', इह तु वितर्के दूरावलोकनेन पदार्थसामान्यमवबुध्यमानस्तद्विशेषं संदिहानो वितर्कयति, एतत् प्रत्यक्षमूर्ध्वस्थितं वस्तु किं तर्के स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । यः संदिग्धोऽनेककोटिपरामर्शी प्रत्ययो विमर्शः, स संशयो मत: संमत इति। ६१. अथ प्रयोजनम्, यदथित्वाद्यस्य फलस्याथित्वमभिलाषुकत्वे यथित्वं, तस्मात्प्रवर्तते 'तत्तदीयसाधनेषु यत्नं कुरुते, तत्त तत्पुनः साध्यं कर्तव्यतयेष्टं प्रयोजनं फलं यस्य वाञ्छया कृत्येषु दुःखमिश्रित सुखको भी छोड़ना ही पड़ता है। जैसे विष छोड़नेकी इच्छासे विषमिश्रित अन्नको भी छोडना ही पड़ता है। जन्म, जरा तथा मरणकी अविच्छिन्न परम्परा का नाम ही संसार है और इस संसारका उच्छेद करना परमपुरुषार्थ है, यही अपवर्ग है। इस अपवर्गकी प्राप्ति तत्त्वज्ञानसे होती है ॥२४॥ ६५९, अब संशय और प्रयोजनका स्वरूप कहते हैं_ 'यह क्या है' इस प्रकारके सन्दिग्ध प्रत्ययको संशय कहते हैं। जिसको प्राप्तिके लिए मनुष्य प्रवृत्ति करता है उस साध्य अर्थको प्रयोजन कहते हैं ॥२५॥ ६०. किं शब्दके अनेक अर्थ होते हैं। यथा, किं शब्द अधिक्षेप-तिरस्कार अर्थमें प्रयुक्त होता है-'वह क्या मित्र है जो द्रोह करता है ?' प्रश्न अर्थमें प्रयुक्त होनेवाला किं शब्द, जैसे 'आपको क्या प्रिय है ?' निवारण-रोकने रूप अर्थमें भी कि शब्दका प्रयोग देखा जाता है, जैसे 'तुम्हारे रोनेसे क्या लाभ है ? अर्थात् मत रोओ।' कहीं अपलाप अर्थमें भी किं शब्द प्रयुक्त होता है, जैसे 'क्या मैं तेरा देनदार हूँ ?' अनुनयार्थक भी कि शब्द होता है, जैसे 'मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?' अवज्ञानार्थक भी कि शब्द है, जैसे 'कोन तुझे बुलाता है ?' वितर्क अर्थमें भी किं शब्दका प्रयोग होता है-'यह दूर क्या दिखाई देता है ? प्रस्तुत प्रकरणमें किं शब्द वितर्थिक है। दूरसे पदार्थ सामान्यको देखकर विशेषांशका प्रत्यक्ष न होनेके कारण सन्देहसे वितकं करता है कि'यह जो सामने ऊँची वस्तु दिखाई देती है वह स्थाणु-ठूठ है अथवा पुरुष ?' तात्पर्य यह किअनेक कोटियोंमें झूलनेवाले चलित प्रतिपत्ति रूप सन्दिग्ध प्रत्ययको संशय कहते हैं। वि अर्थात् विरुद्ध कोटियोंमें झूलनेवाले, मर्श अर्थात् ज्ञानको विमर्श-संशय कहते हैं। ६१. जिस फलको प्राप्त करनेकी अभिलाषासे उसकी प्राप्तिके कारणोंको जुटानेके लिए यत्न किया जाता है वह कर्तव्य रूपसे इष्ट साध्य वस्तु प्रयोजन फल कहलाती है। जिसकी वांछा १. "विशेषस्मृतिहेतोर्धमस्य ग्रहणाद् विशेषस्मृतेश्च जायमानः किंस्वित् इति विमर्शः संशयः।"न्यायक. पृ. । २. “यमर्थमधिकृत्य प्रवर्तते तत् प्रयोजनम् ।"-न्यायसू. १११११४। ३. तेऽहं करो- प. १, २, भ. १,२। ४. वितर्के प. १, २, भ. १, २। ५. -स्य सकलस्या - भ. २। ६. यत्तदी-भ. २। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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