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________________ १०८ षड्दर्शनसमुच्चये [का० २४.६५८चे। वाग्मनःकायव्यापारः शुभाशुभफलः प्रवृत्तिः ७। रागद्वेषमोहास्त्रयो दोषा, ईर्ष्यादीनामेतेष्वेवान्तर्भावः, तत्कृतश्चैष संसारः ८। देहेन्द्रियादिसंघातस्य प्राक्तनस्य त्यागेन संघातान्तरग्रहणं प्रेत्यभावः, एष एव संसारः९। प्रवृत्तिदोषजनितं सुखदुःखात्मकं मुख्यं फलं, तत्साधनं तु गौणम् १० । पीडासंतापस्वभावजं दुःखम्, फलग्रहणेनाक्षिप्तमपीदं सुखस्यापि दुःखाविनाभावित्वात दुःखत्वभावनार्थमुपदिश्यते ॥११॥ आत्यन्तिको दुःखवियोगोऽपवर्गः सर्वगुणवियुक्तस्यात्मनः पथार्थों के साथ इन्द्रियोंका सन्निकर्ष होनेपर भी युगपत् समस्त रूपादि ज्ञानोंकी उत्पत्ति नहीं होती है अतः ज्ञात होता है कि जिस इन्द्रियसे मनका संयोग है उसी इन्द्रियके द्वारा ज्ञान उत्पन्न होता है अन्यसे नहीं। इस तरह युगपत् ज्ञानोंकी अनुत्पत्तिसे मनका सद्भाव सिद्ध होता है । तथा जैसे गन्धादि बाह्य पदार्थों की उपलब्धि करण रूप इन्द्रियोंके बिना नहीं हो सकती उसी प्रकार अन्तरंग सुखादि विषयोंकी उपलब्धिके लिए भी एक करण साधकतमकरण नितान्त अपेक्षणीय है यह करण मन ही हो सकता है । इस प्रकारसे मनका अनुमान किया जाता है । शुभ और अशुभ फलको उत्पन्न करनेवाले वचन मन तथा कायके व्यापार को प्रवृत्ति कहते हैं। राग द्वेष तथा मोह ये तीन दोष हैं। ईर्ष्या आदिका इसी त्रिपुटीमें अन्तर्भाव हो जाता है। इन्हीं दोषोंके द्वारा यह संसार होता है । इस जन्ममें ग्रहण किये गये देह इन्द्रिय आदिके संघातका त्यागकर नवीन देहादिका ग्रहण करना प्रेत्यभाव (प्रेत्य-मरकर, भाव-उत्पत्ति) होना है । जन्मसे जन्मान्तरको परम्परा ही संसार है । प्रवृत्ति और दोषसे उत्पन्न हुए सुख और दुःख मुख्य फल हैं तथा सुख-दुःखके साधनभूत पदार्थ गौण फल हैं। पीड़ा तथा सन्ताप स्वभावसे उत्पन्न होनेवाला दुःख है । यद्यपि 'फल'के कहनेसे दुःखका कथन हो जाता है फिर भी संसारको दुःखरूप दिखाने के लिए तथा सांसारिक किंचित् सुखलवको दुःखाविनाभावी होनेसे दुःखरूप समझानेके लिए 'दुःख'का पृथक् ग्रहण किया है। तात्पर्य यह कि संसारको दुःखरूप देखने की भावना होनेपर ही संसारमें हेय बुद्धि हो सकती है। दुःखके अत्यन्त नाशको अपवर्ग कहते हैं। अर्थात् आत्यन्तिक नाश होनेपर मौजूद दुःखोंके अभावके साथ ही साथ भविष्यमें दुःखोंकी उत्पत्ति न होना भी विवक्षित है। अपवर्ग अवस्थामें आत्मा अपने बुद्धि आदि सभी विशेष गुणोंसे शुन्य होकर शुद्ध आत्मस्वरूप में स्थित हो जाता है। इस संसारमें सुख और दुःखको पृथक् कर त्याग करना असम्भव है अतः दुःख छोड़नेकी इच्छासे १. "इन्द्रियार्थसंनिकर्षे सत्यपि युगपज्ज्ञानानुत्सादात् "तच्चाणु वेगवदाशुसंचारि नित्यम् ""न्यायक. प. ७ । २. "प्रवृत्तिर्वागबद्धिशरीरारभ्य इति ।"-न्यायसू. १।१।१७ । न्यायक. पृ. ७ । "प्रवर्तनालक्षणा दोषाः।" -न्यायसू. [१८। ३. “रक्तो हि तत्कर्म कुरुते येन कर्मणा सुखं दुःखं वा लभते । तथा द्विष्टस्तथा मूढ इति, रागद्वेषमोहा इत्युच्यमानो बहनोक्तं भवति ।" न्यायमा. १।१।१८। न्यायक. पृ. ७ । ४. "पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः।" -न्यायसू. १।१।१९। उत्पन्नस्य क्वचित् सत्त्वनिकाये मृत्वा या पुनरुत्पत्तिः स प्रेत्यभावः, उत्पन्नस्य = संबद्धस्य, संबन्धस्तु देहेन्द्रियमनोबुद्धिवेदनाभिः, पुनरुत्पत्ति = पुनर्देहादिभिः, संबन्धः,"। प्रेत्यभावः = मृत्वा पुनर्जन्म, सोऽयं जन्मभरणप्रबन्धाभ्यासोऽनादिरपवर्गान्तः प्रेत्यभावो वेदितव्य इति ।" -न्यायमा, १११९ । न्यायक, पृ. ७ । ५. "प्रवृत्तिदोषजनितोऽर्थः फलम् ।"-न्यायसू. १।१।२०। "प्रवृत्तिदोषजनकं सुखदुःखात्मकं मुख्यं फलम् । तत्साधनं तु गौणम् ।"-न्यायक. पृ. ७ । ६. "बाधनालक्षणं दुःखम् ।"-न्यायसू. १०१२ । ७. “तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः ।"-न्यायसू. १।२२ । “जन्ममरणप्रबन्धोच्छेदः सर्वदुःखप्रहाणम् अपवर्ग इति ।" न्यायमा. ११९। “आत्यन्तिको दुःखवियोगोऽपवर्गः सर्वगुणवियुक्तस्यात्मनः स्वरूपावस्थानम् । सुखदुःखयोविवेकहानस्याशक्यता । दुःखं जिहासुः सुखमपि जह्यात् । तस्मात्परमपुरुषार्थोऽपवर्गः । स च तत्त्वज्ञानादवाप्यते ।"-न्यायक. पृ.८। । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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