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________________ -का० २४.६५८] नैयायिकमतम् । १०७ भेदेन द्वादशविधं तदिति प्रमेयम् ।" [ न्यायसू. १२११९] तत्र शरीरादिदुःखपर्यन्तं हेयम् , अपवर्ग उपादेयः, आत्मा तु कथंचिद्धयः कथंचिदुपादेयः सुखदुःखादि भोक्ततया हेयः तदुन्मुक्ततयोपादेय इति । तत्रेच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानादीनामाश्रय आत्मा। सचेतनत्वकर्तृत्वसवंगतत्वादिधर्मैरात्मा प्रतीयते १। तद्भोगायतनं शरीरम् २। 'पञ्चेन्द्रियाणि घ्राणरसनचक्षुस्त्वदोत्राणि ३ । पश्चार्था रूपरसगन्धस्पर्शशब्दाः। तत्र गन्धरसरूपस्पर्शाश्चत्वारः पृथिवीगुणाः, रूपरसस्पर्शास्त्रयोऽपां गुणाः, रूपस्पर्शी तेजसो गुणौ, एकः स्पर्थो वायोर्गुणः, शब्द आकाशस्य गुण इति ४।' बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यर्थः, सा क्षणिका, भोगस्वभावत्वाच्च संसारकारणमिति हेया ५ । इन्द्रियार्थसंनिकर्षे सत्यपि युगपज्ज्ञानानुत्पादादान्तरसुखादिविषयोपलब्धेश्च बाह्यगन्धादिविषयोपलब्धिवत्करणसाध्यत्वादान्तरं करणं मनोऽनुमीयते, तत्सर्वविषयं तच्चाणु वेगवदाशुसंचारि नित्यं फल, दुःख तथा मोक्ष ये बारह प्रमेय हैं। इनमें शरीरसे लेकर दुःख पर्यन्त दश प्रमेय हेय-त्याज्य हैं । अपवर्ग (जिसके बाद पवर्ग-प फ आदिका कोई अक्षर नहीं हो अर्थात् पवर्गका अन्तिम ही अक्षर-'म' जिसमें प्रयुक्त होता हो ऐसे मोक्षको अपवर्ग कहते हैं।) उपादेय है। आत्मा तो अवस्था विशेषमें हेय भी होता है तथा उपादेय भी। जब आत्मा सुख, दुःख आदिका भोक्ता होता है तब वह हेय है। और जब सुख, दुःख भोगसे रहित होकर निरुपाधि हो जाता है तब उपादेय है। आत्मा इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख तथा ज्ञानादि गुणोंका आश्रय होता है। चेतनत्व, कर्तृत्व, सर्वगतत्व आदि धर्मोंसे आत्माकी प्रतीति होती है। (आत्मा सर्वगत है अतः जिन नियत प्रदेशोंमें आत्माको सुख, दुःखका उपभोग होता है उन नियत प्रदेशोंका अवच्छेदक तथा ) आत्माके भोगका आयतन शरीर होता है। घ्राण-नाक, रसना-जीभ, चक्षु, त्वक्-स्पर्शन तथा श्रोत्र ये पांच भोगके साधनभूत इन्द्रियां हैं। रूप, रस, गन्ध, स्पर्श तथा शब्द ये पांच इन्द्रियोंके विषय रूप अर्थ हैं। पथिवीमें गन्ध.रूप. रस तथा स्पर्श ये चार गण पाये जाते हैं। जलमें रूप. रसत ये तीन, तेज-अग्निमें रूप और स्पर्श ये दो तथा वायुमें केवल स्पर्श गुण ही पाया जाता है। शब्द आकाशका गुण है। बुद्धि-उपलब्धि ज्ञान ये सब एकार्थक हैं। बुद्धि क्षणिक होती है। भोगरूप होनेसे संसारका कारण है अतः हेय है। मन सभी पदार्थोंको विषय करनेवाला है, अणुरूप है, वेगवाला होनेसे बहुत शोघ्र संचार करनेवाला है तथा नित्य है। सभी १. "तत्र देहादिदुःखान्तं हेयमेव व्यवस्थितम् । उपादेयोऽपवर्गस्तु द्विधावस्थितिरात्मनः ॥ सुखदुःखादिभोक्तृत्वस्वभावो हेय एव सः। उपादेयस्तु भोगादिव्यवहारपराङ्मुखः ॥" -न्यायम, प्रमे. पृ. । २. -भोक्तुतया आ.। ३. "तत्रात्मा सर्वस्य द्रष्टा सर्वस्य भोक्ता सर्वज्ञः सर्वानुभवी।"-न्यायमा.११११९ । "इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति ।-न्यायसू. ११।१०। ४. "चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम् ।" -न्यायसू. १११।। "तस्य भोगायतनं शरीरम् ।" -न्यायमा. १९१९ । ५. "घ्राणरसनचक्षुस्त्वक्श्रोत्राणीन्द्रियाणि भूतेभ्यः ।"-न्यायसू. ॥१॥१३। “भोगसाधनानि इन्द्रियाणि ।" -न्यायमा. ॥१॥९। ६. "गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः पृथिव्यादिगुणास्तदर्थाः।" -न्यायसू. १६११४। “भोक्तव्या इन्द्रियार्थाः।" -न्यायमा. ।। ७. “गन्धरसरूपस्पर्शशब्दानां स्पर्शपर्यन्ताः पृथिव्याः ॥" "असेजोवायूनां पूर्व पूर्वमपोह्याकाशस्योत्तरः ।।" -न्यायसू. ३।१।६१, १२। 'चतुर्गुणाः पृथिवी' 'त्रिगुणा आपः' 'द्विगुणं तेजः' 'एकगुणो वायुः' इति, नियमश्चोपपद्यते ।"-न्यायमा. ३।१।१५। ८. "बुद्धिरुपलब्धिर्ज्ञानमित्यनन्तिरम् ।" -न्यायसू. १०१।१५। "भोगो बुद्धिः।" -न्यायभा. ११९ । न्यायक. पृ.७। ९. "युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम् ।"-न्यायसू. १।३।१६ । १०. “सर्वार्थोपलब्धी नेन्द्रियाणि प्रभवन्तीति सर्वविषयमन्तःकरणं मनः।"-न्यायमा. १११९। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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