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१०६ षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० २४. ६५६ - मिको सा, शब्दस्य तज्जनकस्य तदानीमभावात् । गवयपिण्डविषये च हेयादिज्ञानं यदुत्पद्यते तदिन्द्रियार्थसंनिकर्षजन्यत्वात्प्रत्यक्षफलम् ॥२३॥ 5५६. अथ तुर्य शाब्दमाह
शाब्दमाप्तोपदेशस्तु मानमेवं चतुर्विधम् ।
प्रमेयं त्वात्मदेहायं बुद्धीन्द्रियसुखादि च ॥२४॥ ६५७. व्याख्या-शब्दजनितं शाब्दमागम इत्यर्थः। तुभिन्नक्रमे, शाब्दं तु प्रमाणमाप्तोपदेशः। "आप्त एकान्तेन सत्यवादी हितश्च, तस्योपदेशो वचनमाप्तोपदेशः। तज्जनितं तु ज्ञानं शाब्दस्य फलम् । मानं प्रमाणमेवमुक्तविधिना चतुर्विधम् ।।
६५८. तदेवं प्रथमं प्रमाणतत्त्वं व्याख्याय संप्रति द्वितीयं प्रमेयतत्त्वं व्याख्यातुमाह"प्रमेयं त्वात्मदेहाद्यम्" प्रमेयं तु प्रमाणफलस्यं ग्राह्यं पुनरात्मदेहाद्यम्, आत्मा जीवः, देहो वपुः, तावाद्यौ यस्य तदात्मवेहाद्यम् । बुद्धीन्द्रियसुखादि च प्रमेयम् । बुद्धिर्ज्ञानं, इन्द्रियं चक्षुरादिमनःपर्यन्तं, सुखं सातं तान्यादिर्यस्य तबुद्धीन्द्रियसुखादि । चकार आत्मवेहाद्यपेक्षया समुच्चये। अत्र विशेषणद्वय आद्यशब्देनादिशब्देन च शेषाणामपि समानां प्रमेयानां (पाद) संग्रहो द्रष्टव्यः। तथा च नैयायिकसूत्रम् -"आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गप्रतिपत्ति तो उपमानका फल है। यह प्रतिपत्ति आगमजन्य नहीं कही जा सकती, क्योंकि उस समय इस प्रतिपत्तिको उत्पन्न करनेवाला कोई शब्द नहीं है। गवय प्राणीमें जो हेय उपादेय आदि बुद्धि होती है वह तो इन्द्रियार्थ-सन्निकर्षज होनेसे प्रत्यक्षका फल है ॥२३॥
६५६. अब चौथे शाब्द-आगम प्रमाणका वर्णन करते हैं
आप्तके उपदेशको शाब्द-आगम प्रमाण कहते हैं । इस तरह प्रमाण चार प्रकारका होता है। आत्मा, शरीर आदि तथा बुद्धि, इन्द्रिय, सुखादि प्रमेय हैं ॥२४॥
६५७. शब्दसे उत्पन्न होनेवाला शाब्द-आगम है। तु शब्द भिन्नक्रमवाला है-अर्थात् इसका जिस शब्दके साथ प्रयोग है उससे अतिरिक्तके साथ अन्वय है । अतएव शाब्द प्रमाण तो आप्लोपदेश रूप है-ऐसा अर्थ होगा। जो एकान्तसे सर्वथा सत्यवादी तथा हितकारी है वह आप्त है। आप्तके वचनको आप्तोपदेश कहते हैं । इस आप्तोपदेश रूप वचनसे होनेवाला ज्ञान आगमका फल है । इस प्रकार प्रमाण चार भेदवाला है।
५८. इस तरह प्रमाणतत्त्वका व्याख्यान करके अब द्वितीय प्रमेय तत्त्वका वर्णन करते हैंप्रमाणके फलस्वरूप ज्ञानके ग्राह्य-विषयको प्रमेय कहते हैं। वे प्रमेय आत्म, देह आदि हैं। आत्मा-जीव और देह-शरीर जिनकी आदिमें हैं, वह तथा बुद्धि, ज्ञान, चक्षु आदि मन पर्यन्त छह इन्द्रियां तथा सख-साता रूप अनुभव, इत्यादि प्रमेय हैं। 'च' शब्द समच्चयार्थक है। श्लोकमें आद्य तथा आदि इन दोका विशेषणोंमें प्रयोग है। इनसे मन आदि शेष सात प्रमेयोंका संग्रह हो जाता है। न्यायसूत्र में कहा भी है-"आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मन, प्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव-परलोक,
"आप्तोपदेशः शब्दः।"-न्यायसू. १११७ । २.-मानमेव चतु-भ.२ ३. आप्तः खलु साक्षात्कृतधर्मा यथादृष्टस्यार्थस्य चिख्यापयिषया प्रयुक्त उपदेष्टा।" -न्यायभा.१०। ४. -फलं ग्राह्य आ. क.। ५. तान्यादीनि यस्य आ.। ६.-ये आद्यशब्देन च शेषाणामपि प्रमेयानां सप्तानां संग्रहो द्रष्टव्यः-भ. २। ७. सूत्रं तच्च आत्म -१, २, भ. १,२। ८. आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमन:प्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गास्तु प्रमेयम् ।" -न्यायसू. ।।९।
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