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________________ १०५ -का० २३. १५५] नैयायिकमतम् । ६५४. उपमानलक्षणमाह प्रसिद्धवस्तुसाधादप्रसिद्धस्य साधनम् । 'उपमानं समाख्यातं यथा गौगैवयस्तथा ॥२३॥ ६५५. व्याख्या-"प्रसिद्धसाधासाध्यसाधनमुपमानम्" [न्यायसू. १३११६] इति सूत्रम् । अत्र यत इत्यध्याहार्यम्, ततश्च प्रसिद्धेन वस्तुना गवा यत्साधम्यं समानधर्मत्वं तस्मात्प्रसिद्धवस्तुसाधादप्रसिद्धस्य गवयगतस्य साध्यस्य संज्ञासंज्ञिसंबन्धस्य साधनं प्रतिपत्तिर्यतः साधय॑ज्ञानाद्भवति तदुपमानं समाख्यातम् । साधर्म्यस्य च प्रसिद्धिरागमविका। तत आगमसंसूचनायाह-यथा गौस्तथा गवय इति । गवयोऽरण्यगवयः। अयमत्र भावः-कश्चित्प्रभुणा गवयानयनाय प्रेषितस्तदर्थमजानानस्तमेवाप्राक्षीत् कीदृग्गवय इति, स प्रोचे यादृग्गौस्तादृग्गवय इति । ततः सोऽरण्ये परिभ्रमन् समानमर्थं यदा पश्यति, तदा तस्य तद्वाक्यार्थस्मृतिसहायेन्द्रियार्थसंनिकर्षाद् गोसदृशोऽयमिति यत्सारूप्यज्ञानमुत्पद्यते, तत्प्रत्यक्षफलं, तदेवाव्यभिचार्यादिविशेषणमयं स गवयशब्दवाच्य इति संज्ञासंजिसंबन्धप्रतिपत्ति जनयदुपमानम् । संज्ञासंज्ञिसंबन्धप्रतिपत्तिस्तूपमानस्य फलम् । न पुनराग ५४. उपमानका लक्षण प्रसिद्ध वस्तुके साधर्म्य-सादृश्यसे अप्रसिद्धको सिद्धि करना उपमान प्रमाण है। जैसे गौके समान गवय होता है ॥२३ ६५५. "प्रसिद्ध अर्थके सादृश्यसे साध्यकी सिद्धि उपमान है" यह न्यायदर्शनका उपमान सूत्र है। वहाँ भी 'यतः' पदका अध्याहार करना चाहिए। अतएव प्रसिद्ध वस्तु गौके साधर्म्यसादृश्यसे गवयमें रहनेवाले अप्रसिद्ध संज्ञा संज्ञिसम्बन्ध ( गवयशब्दका वाच्य यही गोसदृश पदार्थ है ) का साधन-प्रतिपत्ति यतः जिस सादृश्यज्ञानसे होता है उस सादृश्यज्ञानको उपमान प्रमाण कहते हैं । सादृश्यका ज्ञान तो आगमसे होता है। अतएव उसी आगम वाक्यकी सूचनाके लिए 'जैसी गो है वैसा ही गवय अर्थात् जंगली रोज होता है' यह कहा है। तात्पर्य यह कि-किसी स्वामीने अपने सेवकसे कहा कि-'जाओ, गवय ले आओ' । बिचारा नौकर गवयको जानता ही नहीं था अतः उसने अपने स्वामीसे ही पूछा कि-'गवय कैसा होता है ?' स्वामीने उसे बता दिया कि-'जैसी गौ होती है ठीक वैसा ही गवय होता है। नौकर स्वामीकी बतायी हुई गवयकी पहचानको याद करके जंगल गया। घमते-घमते वह एक जगह गोके समान आकारवाले प्राणोको देखता है। उसी समय उसे स्वामीके द्वारा बतायी हुई 'जैसी गौ वैसा ही गवय' पहचानका स्मरण हो आता है । उस स्मरणकी सहायतासे इन्द्रियार्थ सन्निकर्षके द्वारा 'यह गौके सदृश है' ऐसा सादृश्यज्ञान उत्पन्न होता है । यह सादृश्यज्ञान प्रत्यक्षका फल है । यही अव्यभिचारी व्यवसायात्मक आदि विशेषणवाला सादृश्यज्ञान जब 'यही वह गवयशब्दका वाच्य प्राणी है। इस संज्ञासंझिंसम्बन्धकी प्रतिपत्तिको उत्पन्न करता है तब उपमानप्रमाण कहलाता है। संज्ञासंज्ञिसम्बन्धकी १. "यदा खल्वयं गवा समानधर्म प्रतिपद्यते तदा प्रत्यक्षतः तमथं प्रतिपद्यते इति, समाख्यासंबन्धप्रतिपत्तिरुपमानार्थ इत्याह । यथा गौरेवं गवय इत्युपमाने प्रयुक्ते गवा समानधर्ममर्थम् इन्द्रियार्थसंनिकर्षादुपलभमानोस्य गवयशब्दः संज्ञेति संज्ञासंज्ञिसंबन्ध प्रतिपद्यते इति ।"-न्यायमा. ११६ । २. प्रसिद्धवस्तुसा- भ. २। ३. "अत्रापि यत इत्यध्याहार्यम् ।" -न्यायवा. ता. टो. पृ. १९६ । ४. -स्य प्रति-क., भ.२। ५. "प्रसिद्धिरुभयी श्रुतिमयी प्रत्यक्षमयो च । श्रुतिमयी यथा गौरेवं गवय इति । प्रत्यक्षमयी च यथा गोसादृश्यविशिष्टोऽयमीदृशः पिण्ड इति । तत्र प्रत्यक्षमयी प्रसिद्धि रागमाहितस्मृत्यपेक्षा समाख्यासंबन्धप्रतिपत्तिहेतुः।" -न्यायभा, ता. टी. पृ. १९७। ६. -नाय प्राह प. १, २, भ. १, २, । ७. तमर्थमजा-भ.२। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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