SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 130
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० २१. ६५२ - नुमानम् । अत्रापि प्राग्वत्कारणज्ञानस्य हेतुः कार्य कार्यदर्शनं तत्संबन्धस्मरणं चानुमानशब्देन प्रतिपत्तव्यम् । यथेत्युदाहरणोपन्यासार्थः प्रथममत्र योज्यः। तथाविधः शीघ्रतरस्रोतस्त्वफलफेनादिवहनत्वोभयतटव्यापित्वधर्मविशिष्टो यों नदीपूरस्तस्माल्लिङ्गादुपरिदेशे देवो मेघो वृष्ट इति ज्ञानम्। अत्र प्रयोगःप्राग्वत् ॥२१॥ ___ यच्च सामान्यतोदृष्टं तदेवं गतिपूर्विका । पुंसि देशान्तरप्राप्तियथा सूर्येऽपि सा तथा ॥२२॥ ६५२. व्याख्या-चः पुनरर्थे, यत्पुनः कार्यकारणभावादन्यत्र सामान्यतोऽविनाभावबलेन दृष्टं लिङ्ग सामान्यतोदृष्टं, तदेवम् । कथमित्यह-यथा पुंस्येकस्माद्देशाद्देशान्तरप्राप्निर्गतिपूक्किा तथा सूर्येऽपि सा देशान्तरप्राप्तिस्तथा गतिपूर्विका । अत्र देशान्तरप्राप्तिशब्देन देशान्तरदर्शनं ज्ञेयम् । अन्यथा देशान्तरप्राप्तेर्गतिकार्यत्वेन शेषवतोऽनुमानादस्य भेवो न स्यात् । यद्यपि गगने संचरतः सूर्यस्य नेत्रावलोकप्रसराभावेन गतिर्नोपलभ्यते, तथाप्युदयाचलात्कालान्तरेऽस्ताचलचूलिकादौ तद्दर्शनं गति गमयति । प्रयोगः पुनः पूर्वमुक्त एव। ___६५३. अथवा देशान्तरप्राप्तेर्गतिकार्यत्वं लोको न प्रत्येतीति इदमुदाहरणं कार्यकारणभावाविवक्षयात्रोपन्यस्तम् एतत्प्रयोगस्त्वेवम्, सूर्यस्य देशान्तरप्राप्तिर्गतिपूर्विका देशान्तरप्राप्तित्वाद्देवदत्तदेशान्तरप्राप्तिवत् ॥२२॥ जाय वह शेषवदनुमान है। यहाँ भी पहलेकी तरह कारणभूत साध्यके ज्ञानमें हेतु होनेवाले कार्य, कार्यका ज्ञान तथा कार्यकारणभाव रूप सम्बन्धका स्मरण सभी अनुमान प्रमाण रूप होते हैं। 'यथा' शब्द उदाहरणार्थक है । वैसा शीघ्रतर प्रवाह वाला, फल फेन आदिको बहानेवाला, दोनों तटोंके अन्त तक डट कर फैला हुआ जो नदोपूर है उससे ऊपरी भागमें हुई वृष्टिका ज्ञानअनुमान होता ही है । प्रयोगका प्रकार पहले कहा जा चुका है ॥२१॥ और जो सामान्यतोदृष्ट है वह इस प्रकार है-किसी पुरुषका गमनपूर्वक देशान्तरमें पहुँचना देखकर सूर्यमें भी देशान्तर प्राप्तिसे गतिका अनुमान करना ॥२२॥ ६५२. 'च' शब्द पुनः शब्दके अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। जो लिंग कार्यकारणभावके बिना सामान्य रूपसे अविनाभावके बलपर ही अनुमापक होता है वह सामान्यतोदृष्ट है। उदाहरणार्थ-किसी पुरुषका एक देशसे दूसरे देशमें पहुंचना गमन करनेपर ही होता है। इस तरह देशान्तरप्राप्तिका गमन पूर्वकत्वके साथ सामान्यसे अविनाभाव ग्रहण करके सूर्यमें देशान्तरप्राप्तिसे गतिका अनुमान करना सामान्यतोदृष्ट है। देशान्तरप्राप्तिका अर्थ है देशान्तरमें उस वस्तुका देखा जाना। यदि देशान्तर संयोग ही देशान्तरप्राप्तिका अर्थ हो; तब यह संयोग तो गमन क्रियाका कार्य है अतः शेषवदनुमानमें ही यह अन्तर्भूत हो जायेगा, अतः देशान्तर प्राप्तिका अर्थ 'देशान्तरमें उस वस्तुका दिखाई देना' ही करना चाहिए । यद्यपि सूर्यके प्रखर ताप एवं तेज पुंज किरण जालके कारण नेत्र चकचौंधया जाते हैं और इसलिए उसका आकाश गमन नेत्रोंसे नहीं दिखाई देता फिर भी प्रातःकाल उदयाचलपर दिखनेवाले सर्यको सायंकाल अस्ताचलपर देखनेसे उसकी गतिका परिज्ञान सहज ही हो जाता है । इस अनुमानके प्रयोगको सरणि पहले बतायी जा चुकी है। ६५३. अथवा-'देशान्तरप्राप्ति गमन क्रियाका कार्य है' इस कार्य-कारण भावको साधारण व्यवहारी जन नहीं समझ पाते हैं अता कार्यकारणभावकी अविवक्षामें इस उदाहरणको सामान्यतोदृष्ट अनुमान मानना चाहिए । प्रयोग-सूर्यका एक देशसे दूसरे देश में पहुँचना गतिपूर्वक होता है, क्योंकि वह देशान्तरप्राप्ति है जैसे देवदत्तका एक देशसे गति करके दूसरे देश में पहुँचना ।।२२॥ १. विधशीघ्र-आ., क.। तथाविधाः शी- भ. २ । २. -प्तिगंति-भ. २। ३. प्रत्येतीदमु-भ. २ । ४. प्रयो-आ., क.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy