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________________ १०२ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० १९.६४८४८. तदेवं कारणादित्रैविध्यात्त्रिप्रकारं लिङ्गं प्रमिति जनयत्तत्पूर्वकं सदनुमानमिति द्वितीयं व्याख्यानम् । अत्र व्याख्याद्वये प्रथमव्याख्यानमेव बहूनामध्ययनप्रभृतीनामभिमतम् । तत्र च पूर्ववदादीनां व्याख्या द्वितीयव्याख्याने या चतुःप्रकाराभिहिता सैव द्रष्टव्येति । अथ शास्त्रकार एव बालानामसंमोहाथं . शेषव्याख्याप्रकारानुपेक्ष्यानुमानस्य त्रिविधस्य विषयज्ञापनाय पूर्ववदादीनि पदानि व्याख्यानयन्नाह 'तत्राद्यम्' इत्यादि । तत्र तेषु पूर्ववदादिष्वाद्यं पूर्ववदनुमानं किमित्याह-कारणाल्लिङ्गात्कार्यस्य लिनिनोऽनुमानं ज्ञानं कार्यानुमानम, इहानुमानप्रस्तावे, गीयते प्रोच्यते। कारणात्कार्यमनुमानमिहोदितमिति पाठो वा। तत्रास्तीतिशब्दाध्याहारे कारणात्कार्यमस्तीत्यनुमानम् । कारणात्कार्यमस्तीति ज्ञानमिहानुमानप्रस्ताव उदितं प्रोक्तम् । पाठद्वयेऽप्यत्र यल्लिङ्गिज्ञानमनुमानशब्देनोचे, तद्वितीयव्याख्यानकारिणां मतेन, न तु प्रथमव्याख्यानक मतेन । प्रथमव्याख्याकारिमतेन हि ज्ञानस्य हेतुरेवानुमानशब्दवाच्यः स्यात् । एवं शेषवत्यपि ज्ञेयम् । यत्र कारणात्स्वज्ञानविशिष्टात्कार्यस्य ज्ञानं भवति, तत्पूर्ववदनुमानम् । अत्र ह्यर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणमिति वचनात्कार्यज्ञानमनुमानस्य फलं, तद्धेतुस्त्वनुमानं प्रमाणम् । तेनात्र कारणं वा तज्ज्ञानं वा कार्यकारणप्रतिबन्धस्मरणं वा कार्य ज्ञापयत्पूर्ववदनुमानमिति ॥१७-१८-१९॥ ६४९. तस्योदाहरणमाह । यथा ४८. इस प्रकार कारण आदिके भेदसे तीन प्रकारका लिंग प्रत्यक्ष होकर लिंगिविषयक प्रमिति को उत्पन्न करता है अतः वह अनुमान है। यह दूसरा व्याख्यान हुआ। इन दो व्याख्याओंमें पहली व्याख्या ही बहुत-से अध्ययन आदि आचार्योंको मान्य है। द्वितीय व्याख्यानमें पूर्ववत् आदिकी जो चार व्याख्याएं की हैं वे सभीको अभिमत हैं। इन अनेक व्याख्या भेदोंके जालमें शिष्यकी बुद्धि न उलझ जाय, वह भटक न जाय इसलिए ग्रन्थकार स्वयं अन्य व्याख्याओंकी उपेक्षा करके त्रिविध हेतुओंका विषय बतानेके लिए पूर्ववत् आदि पदोंका व्याख्यान करते हैं-उन पूर्ववत् आदि हेतुओंमें पहला पूर्ववत् अनुमान है। कारण रूप हेतुसे कार्य रूप साध्यके अनुमान अर्थात् ज्ञानको इस प्रकरणमें पूर्ववद् अनुमान अर्थात् कार्यानुमान ( कार्यका अनुमान ) कहते हैं । 'कारणात् कार्यमनुमानमिहोदितम्' ऐसा भी पाठ देखा जाता है। इस पाठमें 'अस्ति' शब्दका अध्याहार करके कारणसे 'कार्य है' ऐसा अनुमान-ज्ञान करना इस प्रकरणमें पूर्ववत् अनुमान कहा गया है । यह अर्थ होता है। दोनों ही पाठोंमें जो लिंगज्ञानको अनुमान शब्दसे कहा गया है वह 'पूर्ववत्' सूत्रके द्वितीय व्याख्याकारके मतसे है, प्रथम व्याख्याकारके मतसे नहीं। प्रथम व्याख्याकारके मतसे तो उक्त साध्यका ज्ञान 'यतः' जिससे होता है वह हेतु ही अनुमान शब्दका वाच्य होता है। इसी तरह शेषवत् आदिकी व्याख्यामें भी दो पक्ष समझ लेना चाहिए। तात्पर्य यह कि जहाँ स्वज्ञानविशिष्ट कारणसे अर्थात् ज्ञायमान कारणसे कार्यका ज्ञान होता है वह पूर्ववत् अनुमान है। यहाँ “अर्थोपलब्धिके कारणको प्रमाण कहते हैं" . ऐसा शास्त्रकारोंका कथन होनेसे कार्यज्ञान तो अनुमानका फल हुआ है तथा यह कार्यज्ञान जिस हेतुसे होता है वह हेतु अनुमान प्रमाण रूप है। इसलिए कारण या कारणका ज्ञान अथवा कार्य-कारण रूप सम्बन्धका स्मरण सभी कार्यका अनुमान-ज्ञान करानेके कारण पूर्ववत् अनुमान हैं ।।१७-१९॥ $ ४९. इस पूर्ववत् अनुमानका उदाहरण कहते हैं । जैसे १. ने चतुः भ. २ । २. सेव आ., क.। ३. कार्यज्ञानं यत् भ. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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