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- का० १९६४७ ]
नैयायिकमतम् ।
४५. यत्र धर्मी साधनधर्मश्च प्रत्यक्षः साध्यधर्मश्च सर्वदा प्रत्यक्षः साध्यते तत्सामान्यतोदृष्टम् । यथेच्छादयः परतन्त्रा गुणत्वाद्रूपवत् । उपलब्धिर्वा करणसाध्या क्रियात्वाच्छिदिक्रियावत् । असाधारणकारणपूर्वकं जगद्वैचित्र्यं चित्रत्वाच्चित्रादिवैचित्र्यवदित्यादि सामान्यतोदृष्टस्यानेक मुदाहरणं मन्तव्यम् ।
$ ४६. ननु साध्यधर्मस्य सर्वदाप्रत्यक्षत्वेन साध्येन हेतोः कथं व्यामिग्रहणमिति चेत्, उच्यते । धर्मण इच्छादेः प्रत्यक्षप्रतिपन्नत्वं गुणत्वकार्यत्वादेरपि साधनस्य तद्धर्मत्वं प्रतिपन्नमेव । पारतन्त्र्येण च स्वसाध्येन तस्य व्याप्तिरध्यक्षतो रूपादिष्ववगतैव । साध्यव्यावृत्त्या साधनव्यावृत्तिरपि प्रमाणान्तरादेवावगता ।
४७. नन्वेवं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टानां परस्परतः को विशेषः । उच्यते । इच्छादेः पारतन्त्र्यमात्रप्रतिपत्तौ गुणत्वं कार्यत्वं वा पूर्ववत्, तदेवाश्रयान्तरबाधया विशिष्टाश्रयत्वेन बाधकेन प्रमाणेनावसीयमानं शेषवतः फलम्, तस्य साध्यधर्मस्य धर्म्यन्तरे प्रत्यक्षस्यापि तत्र धर्मिणि सर्वदाप्रत्यक्षत्वं सामान्यतोदृष्टव्यपदेश निबन्धनम् । अतस्त्रयाणामेकमेवोदाहरणम् ।
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$ ४५. जहां धर्मी और हेतु तो प्रत्यक्ष हो तथा साध्यधमं सदा अप्रत्यक्ष रहता हो वहाँ सामान्यतोदृष्ट अनुमान होता है । जैसे—इच्छा आदि परतन्त्र हैं क्योंकि वे गुण हैं जैसे कि रूप उपलब्धि रूप क्रिया करणके द्वारा होती है क्योंकि वह क्रिया है जैसे कि बसूलेसे होनेवाली छेदन क्रिया । संसारकी विचित्रता किसी असाधारण कारण - ( अदृष्ट ) से होती है क्योंकि वह विचित्रता है जैसे अनेक रंग आदिसे होनेवाली चित्रको विविधरूपता इत्यादि अनेकों उदाहरण सामान्यतोदृष्ट अनुमानके स्वयं समझ लेना चाहिए ।
४६. शंका - सामान्यतोदृष्ट अनुमान में यदि साध्यधमं सर्वदा अप्रत्यक्ष है तो उसकी साधनके साथ व्याप्तिका ग्रहण कैसे होगा ? सम्बन्धका बोध तो दोनों सम्बन्धियों के प्रत्यक्ष होनेपर ही हो सकता है |
उत्तर- इच्छादि धर्मी तो 'अहमिच्छावान्' इस मानस प्रत्यक्षसे सिद्ध ही है, इसी तरह उसमें रहनेवाले गुणत्व या कार्यत्व रूप साधन धर्मोका भी प्रत्यक्ष हो हो जाता है । उन साधनोंकी पारतन्त्र्य रूप साध्य के साथ व्याप्ति भी रूपादिमें प्रत्यक्षसे देखते ही हैं कि - 'रूपादि गुण भी है और घट आदि आश्रित भी हैं। इसी तरह परतन्त्रत्व रूप साध्यकी व्यावृत्ति होनेपर गुणत्व रूप साधन की व्यावृत्ति भी दूसरे प्रमाणोंसे जान ही ली जाती है ।
$४७. प्रश्न - यदि गुणोंको परतन्त्र सिद्ध करनेमें पूर्ववत् शेषवत् और सामान्यतोदृष्ट इन तीनों अनुमानों का प्रयोग होता है, तब इनमें परस्पर क्या भेद है ?
उत्तर- इच्छादिमें केवल परतन्त्रता सिद्ध करने में प्रयुक्त गुणत्व या कार्यत्व हेतु पूर्ववत् हैं । ये ही जब बाधक प्रमाणोंके द्वारा अन्य आश्रयोंका निषेध करके किसी आत्मारूप विशिष्ट आश्रय में इच्छादिकी वृत्ति सिद्ध करते हैं तब परिशेषानुमान रूप हो जाते हैं । और चूँकि परतन्त्रत्त्र रूप साध्य धर्म दूसरे धर्मी सपक्षभूत घटादिमें तो प्रत्यक्ष है पर धर्मों में सदा अप्रत्यक्ष रहता है इसलिए इसे सामान्यतोदृष्ट अनुमान भी कह सकते हैं । इसीलिए इन तीनोंका एक ही उदाहरण दिया गया है ।
१. सदा प्र-भ. २ । २. " सामान्यतोदृष्टं तु नित्यपरोक्षे धर्मिणि व्याप्तिग्रहणादनुमानम् । यथेच्छादिना कार्येणात्मानुमानं वक्ष्यते ।" - न्यायक. पृ. ३ । " सामान्यतोदृष्टस्य नित्यपरोक्षानुमेयेक विषयत्वात् । " - न्यायम, प्रभा. पृ. १२१ । ३. एकत्राप्युदाहरणे त्रैविष्यमभिधातुं शक्यते, यथा इच्छादिकार्यमाश्रितं कार्यत्वाद् घटवद् इत्याश्रयमात्रे साध्ये पूर्ववदनुमानम्, प्रसक्तशरीरेन्द्रियाद्याश्रयप्रतिषेधेन विशिष्टाश्रयकल्पने तदेव परिशेषानुमानम्, अनुमेयस्य नित्यपरोक्षत्वात् तदेव सामान्यतोदृष्टं च ।”
-न्यायम. प्रभा. पू. १२१ ।
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