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१०० षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० १९.६४३४३. अथवा पूर्वेण व्याप्तिग्राहकप्रत्यक्षेण तुल्यं वर्तत इति पूर्ववत् संबन्धग्राहकप्रत्यक्षेण विषयतुल्यत्वात्कथंचित्परिच्छेद क्रियाया अपि तुल्यतावानुमाने समस्तीति क्रियातुल्यत्वे वतेः प्रयोगः सिद्धः, तेन पूर्वप्रतिपत्त्या तुल्या प्रतिपत्तियतो भवति, तत्पूर्ववदनुमानम् । इच्छावयः परतन्त्रा गुणत्वात रूपादिवदिति ।।
६४४. शेषवन्नाम परिशेषः, स च प्रसक्तानां प्रतिषेधेऽन्यत्र प्रसङ्गासंभवाच्छिष्यमाणस्य संप्रत्ययः, यथा गुणत्वादिच्छादीनां पारतन्त्र्ये सिद्ध शरीरादिषु प्रसक्तेषु प्रतिषेधः । शरीरविशेषगुणा इच्छादयो न भवन्ति, तद्गुणानां रूपादीनां स्वपरात्मप्रत्यक्षत्वेनेच्छादीनां च स्वात्मप्रत्यक्षत्वेन वैधात् । नापीन्द्रियाणां विषयाणां वा गुणा उपहतेष्वप्यनुस्मरणदर्शनात् । न चान्यस्य प्रसक्तिरस्ति, अतः परिशेषादात्मसिद्धिः। प्रयोगश्चात्र, योऽसौ परः स आत्मशब्दवाच्यः, इच्छाद्याधारत्वात् । ये त्वात्मशब्दवाच्या न भवन्ति, त इच्छाद्याधारा अपि न भवन्ति, यथा शरीरादयः। अत्र प्रत्यक्षेणागृहीत्वान्वयं केवलव्यतिरेकबलादात्मनःप्रमा शेषवतः फलम् ।
६४३. अथवा, पूर्ववत्-पूर्व अर्थात् प्राक्कालीन व्याप्तिको ग्रहण करनेवाले प्रत्यक्षके तुल्य विषयवाला अनुमान । अविनाभाव रूप सम्बन्धको ग्रहण करनेवाले प्रत्यक्षके तुल्य ही इसका विषय होता है अतः परिच्छित्ति भी प्रायः उसके तुल्य ही होती है। पूर्ववत्में वति प्रत्यय क्रियाकी तुल्यताके अर्थमें किया गया है। इसलिए जैसे पहले सम्बन्धग्राहि प्रत्यक्षने प्रतिपत्ति की, ठीक उसी तरहकी प्रतिपत्ति जिससे हो उसे पूर्ववत् अनुमान कहते हैं। उदाहरणार्थ-इच्छा आदि परतन्त्र अर्थात् किसी द्रव्यके आश्रित रहते हैं क्योंकि वे गुण हैं जैसे कि रूपादि।
४४. शेषवत्-परिशेषानुमान । प्रसक्त अर्थात् जिनमें प्रकृत पदार्थके रहनेकी आशंका हो सकती है उन पदार्थों का निषेध करनेपर, जब अन्य किसी अनिष्ट अर्थको सम्भावना न रहे, तब शेष बचे हुए इष्ट पदार्थको प्रतिपत्ति करना परिशेषानुमान है। जैसे गुणत्व हेतुसे इच्छा आदिमें परतन्त्रत्वको सिद्धि होनेपर शरीर विषय और इन्द्रियोंमें भी इच्छाके रहनेका प्रसंग आया कि'इच्छा आदि शरीर आदिके आश्रित भी हो सकते हैं तब इन प्रसक्त पदार्थों का निषेध करके अनिष्ट अर्थकी सम्भावना नहीं रहनेपर परिशेष रूपसे इष्ट-आत्मामें ही इच्छा आदिको आश्रित सिद्ध करना परिशेषानुमानका कार्य है। प्रसक्त प्रतिषेध इस प्रकार किया जाता है-इच्छा आदि शरीरके विशेष गुण नहीं हो सकते, क्योंकि शरीरके विशेष गुण रूपादि स्व तथा पर सर्वसाधारणके प्रत्यक्ष होते हैं, पर इच्छा आदि तो जिस आत्माके हैं उसीके ही प्रत्यक्ष होते हैं अन्य आत्माके प्रत्यक्ष नहीं होते । इच्छादि इन्द्रिय तथा विषयके गुण भी नहीं हैं, क्योंकि अमुक इन्द्रियोंका तथा विषयोंका नाश हो जानेपर भी स्मरण आदि गुणोंका सद्भाव देखा जाता है। यदि ज्ञान इच्छादि इन्द्रियों तथा विषयोंके गुण होते, तब गुणीके नाश होनेपर अनुस्मरण आदि गुणोंकी प्रतीति कदापि नहीं हो सकती थी। इनके अतिरिक्त अन्य किसी अनिष्ट अर्थकी सम्भावना नहीं है अतः परिशेष अर्थात् शेष बचे हुए इष्ट आत्माकी ही उन गुणोंके आधार रूपमें सिद्ध हो जाती है। प्रयोग-परतन्त्रमें जो पर है वह आत्मशब्दवाच्य-आत्मा ही है क्योंकि वही इच्छा आदिका आधार हो सकता है। •जो आत्मशब्दवाच्य आत्मा नहीं है वह इच्छा आदिका आधार भी नहीं हो सकता जैसे कि शरीर आदि । यहाँ प्रत्यक्षसे अन्वय व्याप्ति गृहीत नहीं है, अतः केवल-व्यतिरेक दृष्टान्तके आधारसे आत्माका ज्ञान शेषवदनुमानका फल है।
१. पूर्ववदिति यत्र ययापूर्व प्रत्यक्षभूतयोरन्यतरदर्शनेनान्यतरस्याप्रत्यक्षस्यानुमानं यथा धूमेनाग्निरिति । न्यायभा. ११५। २. तुल्यत्ववतः आ., क.। ३. "शेषवद् नाम परिशेषः स च प्रसक्तप्रतिषेधेऽन्यत्राप्रसङ्गात् शिष्यमाणे संप्रत्ययः।"-न्यायमा, ११११५। ४. वत्फलं भ. २ ।
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