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षड्दर्शनसमुच्चये [का० १९. ६४०विशेषो नासर्वज्ञेन निश्चेतुं पार्यत इति वक्तुं शक्यम्; सर्वानुमानोच्छेदप्रसक्तेः। तथाहि-मशकादिव्यावृत्तधूमादीनामपि स्वसाध्याव्यभिचारित्वमसर्वविदा न निश्चेतुं शक्यमिति वक्तुं शक्यत एव । अथ "सुविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति" इति न्यायादेधूमादेर्गमकत्वम्, तत्तयत्रापि समानम् । यो हि भविष्यवृष्टयव्यभिचारिणमुन्नतत्वादिविशेषमवगन्तुं समर्थः स एव तस्मातामनुमिनोति, नागृहीतविशेषः । तदुक्तम्-"अनुमातुरयमपराधो नानुमानस्य" इति ।
$ ४०. शेषः कार्य तदस्यास्ति तच्छेषवत्, यत्र कार्येण कारणमनमीयते, यथा नदीपूरदर्शनावृष्टिः । अत्र कार्यशब्देन कार्यधर्मो लिङ्गमवगन्तव्यम् । प्रयोगस्त्वित्थम्,-उपरिवृष्टिमद्देशसंबन्धिनी नदी, शीघ्रतरत्रोतस्त्वे फलफेनसमूहकाष्ठादिवहनत्वे च सति पूर्णत्वात्, तदन्यनदीवत् । दिखावटी हवामें काफूर होनेवाले मेघोंके उन्नतत्व धर्म तो व्यभिचारी होंगे ही। 'बरसनेवाले मेघोंके उन्नतत्व आदि विशिष्ट धर्मोको हम लोग जान ही न सकते हों यह बात तो नहीं है । यदि हम लोग इतना भी विवेक न कर सकें कि 'कौन-से मेघ बरसनेवाले हैं तथा कौन-से केवल गरजनेवाले' तब तो संसारके सभी अनुमानोंका उच्छेद हो जायेगा। क्योंकि यह भी तो कहा जा सकता है कि-'झाले, मच्छर आदिसे धूमका भेद जान भी लिया जाय, पर वह धूम सदा अपने साध्यका व्यभिचारी होगा यह जानना असर्वज्ञोंके सामर्थ्य की बात नहीं है। लिहाजा धूमसे अग्निका अनुमान करना भी कठिन हो जायेगा। "अच्छी तरह देखा एवं विचारा गया कार्य कारणका व्यभिचारी नहीं हो सकता" इस न्यायके अनुसार धूम हेतुको यदि सत्य माना जाता है तो यह न्याय कारण हेतुमें भी अच्छी तरह लगाया जा सकता है। कि जो व्यक्ति बरसनेवाले मेघोंके अव्यभिचारी उन्नतत्व आदि विशेष धर्मोंका विवेक अच्छी तरह कर सकता है वह अवश्य ही विशिष्ट मेघोदयसे भविष्यद्वष्टिका अनुमान करेगा। अभी भी साधारण किसान बादलोका रंग-ढंग देखकर पानी बरसनेका अव्यभिचारी अनुमान करते ही हैं। हां, जो मन्द बुद्धि केवल गरजनेवाले तथा बरसनेवाले मेघोंके धर्मों में विवेक नहीं कर सकता उसे कारणसे कार्यके अनुमान करनेकी अनधिकार चेष्टा नहीं करनी चाहिए । इसी विषयको शास्त्रमें भी कहा है कि-"यह तो अनुमान करनेवालेकी बुद्धिका दोष है, इसमें अनुमानका कोई दोष नहीं है।"
४०. शेष अर्थात् कार्य । कार्यसे कारणके अनुमानको शेषवत् अनुमान कहते हैं । जैसे नदीकी बाढ़ देखकर ऊपरी देशोंमें हुई वृष्टिका अनुमान करना । यहाँ कार्य शब्दसे कार्यके धर्मभूत हेतुका ग्रहण करना चाहिए । इसका प्रयोग इस प्रकार है-इस नदीके ऊपरी प्रदेश में वृष्टि हुई है, क्योंकि इसका प्रवाह बहुत तेज है, फल फेन तथा किनारेकी लकड़ी आदिको बहानेवाला तथा पूर्ण है, जैसे कि अन्य बाढ़वाली नदी।
१. तुलना-"यत्नतः परीक्षितं कार्य कारणं नातिवर्तते इति चेत् स्तुतं प्रस्तुतम् ।"- अष्ट. श., अष्टसह. पृ...। प्रमेयरत्नमा. ३।१०१। लघी. ता. पृ. ४९ । सूविवेचितं कार्य कारणं न व्यभिचरति ।"न्यायकुमु. पृ. ६०४ । २. तस्मात्तमनु-आ. क.। सन्मति टी. पृ. २६६ । ३. "प्रतिपत्तरपराधो नानुमानस्येति ।" -अष्टश. अष्टस. पृ. ७., न्यायकुमु. पृ. ७३ । स्या. रत्ना. पृ. २६९ । “प्रमातूरपराधोऽयं विशेष यो न पश्यति । नानुमानस्य दोषोऽस्ति प्रमेयाव्यभिचारिणः ॥" -न्यायम. प्रमा. पृ. ११८। ४. शेषं का-आ., क.। ५. शेषवत्-तद् यत्र कार्येण कारणमनुमोयते पूर्वोदकविपरीतमुदकं नद्याः पूर्णत्वं शीघ्रत्वं च दृष्ट्वा स्रोतसोऽनुमोयते-भूता वृष्टिरिति ।" -न्यायभा, ११५। "उपरि वृष्टिमद्देशसंबन्धिनी नदी स्रोतः शीघ्रत्वे सति पूर्णफलकाष्ठादिवहनवत्त्वे सति पूर्णत्वात् पूर्णवृष्टिमन्नदीवदिति । न्यायवा. पृ. ४७ ।
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