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________________ - का० १९. ६ ३९ ] नैयायिकमतम् । भावात्केवलव्यतिरेकी । प्रसङ्गद्वारेण वा केवलव्यतिरेकी । यथा नेदं निरात्मकं जीवच्छरीरमप्राणादिमत्त्वप्रसङ्गाल्लोष्ट वदिति प्रसङ्गः । प्रयोगस्त्वित्थम् इदं जीवच्छरीरं सात्मकम्, प्राणादिमत्वात् यन्न सात्मकं तन्न प्राणादिमद्यथा लोष्टमिति प्रसङ्गपूर्वकः केवलव्यतिरेकीति ॥ ३ ॥ $ ३८. एवमनुमानस्य भेदान् स्वरूपं च व्याख्याय विषयस्य त्रैविध्यप्रतिपादनायैव माहुःअथवा तत्पूर्वकमनुमानं त्रिविधं त्रिप्रकारम् । के पुनखयः प्रकारा इत्याह पूर्ववदित्यादि', पूर्व कारणं विद्यते यत्रानुमाने तत्पूर्ववत्, यत्र कारणेन कार्यमनुमीयते यथा विशिष्टमेघोन्नत्या भविष्यति वृष्टिरिति । अत्र कारणशब्देन कारणधर्म उन्नतत्वादिग्रह्यः । प्रयोगस्त्वेवम्, अमो मेघा वृष्टयुत्पादकाः, गम्भीरगजितेत्वेऽचि ( त्वे चि ) रप्रभावत्वे च 'सत्यत्युन्नतत्वात्, य एवं ते वृष्टयुत्पादका यथा वृष्ट्य त्पादक पूर्वमेघाः, तथा चामी, तस्मात्तथा । ६ ३९. ननून्नतत्वादिधर्मयुक्तानामपि मेघानां वृष्टयज नकत्वदर्शनात् कथमैकान्तिकं कारणाकार्यानुमानमिति चेत् । न, विशिष्टस्योन्नतत्वादेर्धर्मस्य गमकत्वेन विवक्षितत्वात् । न च तस्य ९७ कादाचित्क — कभी-कभी नियत समय में होते हैं, अनित्य हैं, जो सर्वज्ञकर्ताके द्वारा उत्पन्न नहीं किया गया वह कादाचित्क - अनित्य भी नहीं है जैसे कि आकाश आदि । यहाँ समस्त कार्यों को पक्ष किया है, इसलिए संसार में पक्षसे बहिर्भूत कोई कार्य ही नहीं बचा जिसे सपक्ष मानकर सपक्ष - सत्त्व रूपकी सिद्धि की जा सके । अतः यह हेतु केवलव्यतिरेक व्याप्ति मिलनेके कारण केवलव्यतिरेकी है । अनिष्टका प्रसंग देकर भी केवलव्यतिरेकी हेतुका प्रयोग किया जाता है । जैसे - यह जीवित शरीर आत्मशून्य नहीं है अन्यथा इसमें पत्थर आदिकी तरह प्राणादिके अभावका प्रसंग होगा । इसके प्रयोगका प्रकार यह है - यह जीवित शरीर सात्मक- आत्मासे युक्त है, क्योंकि इसमें प्राण आदि पाये जाते हैं, जो सात्मक नहीं है वह प्राणादिवाला भी नहीं है जैसे कि पत्थर । यह प्रसंगपूर्वक केवलव्यतिरेकी हेतुका उदाहरण है । 1 ३८. इस तरह अनुमान सूत्रकी भेद तथा स्वरूपको दृष्टिसे व्याख्या करके अब विषयदृष्टिसे उसके तीन विषयोंका निर्देश करनेके लिए तीसरी व्याख्या करते हैं । अथवा, तत्पूर्वक अनुमान तीन प्रकारका है । पूर्ववत् आदि तीन प्रकार हैं । पूर्ववत् - जिस अनुमान में पूर्व-कारण मौजूद हो वह पूर्ववत् है अर्थात् जहां कारणसे कार्यका अनुमान किया जाता है वह पूर्ववत् अनुमान है । जैसे विशिष्ट - काले और घने मेघोंका उदय हो अर्थात् विशिष्ट मेघोदय देखकर भविष्यत् कालमें पानी बरसने का अनुमान । यहाँ कारण शब्दसे कारणके उन्नतत्व आदि धर्मोका ग्रहण करना चाहिए। इसका प्रयोग इस प्रकार है -ये मेघ वृष्टि अवश्य करेंगे, क्योंकि ये खूब घड़घड़ाकर गम्भीर गर्जना कर रहे हैं, बहुत काल तक स्थिर रहनेवाले हैं, जल्दी ही हवा में उड़नेवाले नहीं हैं । तथा उन्नत - खूब सघन हैं, काले हैं। जो मेघ उक्त विशिष्टता रखते हैं वे अवश्य ही बरसते हैं जैसे कि पहले देखे गये बरसनेवाले मेघ, ये मेघ भी तो उसी प्रकारके हैं, इसलिए ये भी अवश्य ही बरसेंगे । ३९. शंका- आपके द्वारा कहे गये उन्नतत्व आदि धर्मवाले भी बहुत-से मेघ केवल गरजकर ही रह जाते हैं, बरसते तो नहीं हैं, इसलिए कारणसे कार्यका अनुमान एकान्तिक - सत्य कैसे कहा जा सकता है ? व्यभिचारी भी हो सकता है । समाधान - यहाँ बरसने वाले मेघों में रहनेवाले उन्नतत्व आदि विशिष्ट धर्मोकी विवक्षा है । १. " पूर्ववन्नाम यत्र कारणेन कार्यमुपनीयत इति भाष्यम् ।। कथं पुनरस्य प्रयोगः । वृष्टिमन्त एते मेघाः गम्भीरध्वानवत्त्वे सति बहुलबला कावस्वे सति अचिरप्रभावत्त्वे सति उन्नतिमत्त्वात् वृष्टिमन्मेघवदिति । - न्याय वा. पृ. ४६, ४७ । २. त्वे चिरप्रभा - भ. २ । ३. सत्युन्नत-क. । १३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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