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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [ का० १९. ६ ३७३७. अथवा त्रिविधमिति त्रिरूपम् । कानि त्रीणि रूपाणीत्याह पूर्ववदित्यादि । पूर्व मुपादीयमानत्वापूर्वः पक्षः सोऽस्यास्तीति पूर्ववत्पक्षधर्मत्वम्। शेष उपयुक्तादन्यत्वात्साधर्म्यदृष्टान्तः सोऽस्त्यत्रेति शेषवत्सपक्षे सत्त्वम्। सामान्यतोदृष्टमिति विपक्षे मनागपि यन्न दृष्टं विपक्षे सर्वत्रासत्त्वं तृतीयं रूपम् । चशब्दात्प्रत्यक्षागमाविरुद्धत्वासत्प्रतिपक्षत्वरूपद्वयं च । एवं च पञ्चरूपलिङ्गालम्बनं यत्तत्पूर्वकं तदन्वयव्यतिरेक्यनुमानम्। विपक्षासत्त्वसपक्षसत्त्वयोरन्यतररूपस्या संबन्धात्तु चतूरूपलिङ्गालम्बनं केवलान्वयि केवलव्यतिरेकि चानुमानम् । तत्र 'अनित्यः शब्दः, कार्यत्वात्, घटादिवदाकाशादिवच्च' इत्यन्वयव्यतिरेकी हेतुः॥१॥'अदृष्टादीनि कस्यचित्प्रत्यक्षाणि, प्रमेयत्वात्, करतलादिवत्' इत्यत्र कस्यचित्प्रत्यक्षत्वे साध्येऽप्रत्यक्षस्य कस्यापि वस्तुनो विपक्ष. स्याभावादेव केवलान्वयी ॥२॥ सर्ववित्कर्तृपूर्वकं सर्व कार्यम, कादाचित्कत्वात्, यत्सर्ववित्कर्तृ. पूर्वकं न भवति तन्न कादाचित्कं यथाकाशादि। अत्र सर्वस्य कार्यस्य पक्षीकृतत्वादेव सपक्षा. ६३७. अथवा, त्रिविध-त्रिरूप । हेतुके तीन रूप होते हैं। पूर्ववत्-सर्वप्रथम पक्षका प्रयोग किया जाता है अतः पक्षको पूर्वशब्दसे कहते हैं । पक्षमें रहनेवाले हेतुको पूर्ववत् अर्थात् पक्षधर्मवाला कहते हैं। शेष-पक्षसे भिन्न सदृश धर्मी सपक्ष, अर्थात् अन्वयदृष्टान्त है। जिस हेतुका शेषअन्वयदृष्टान्त मिलता हो वह शेषवत् अर्थात् सपक्षसत्त्ववाला है। 'सामान्यतोदृष्ट' में अकारका प्रश्लेष करके 'सामान्यतोऽदृष्ट' हो जाता है । जो हेतु किसी भी विपक्षमें किसी भी तरह नहीं रहता वह सामान्यतोदृष्टविवक्षासत्त्व रूपवाला है। 'च' शब्दसे अबाधितविषयत्व अर्थात् प्रत्यक्ष और आगमसे हेतुका बाधित न होना, तथा असत्प्रतिपक्षत्व अर्थात् साध्यके अभावको सिद्ध करनेवाले विपरीत अनुमानका न होना, इन दो रूपोंका भी ग्रहण हो जाता है। इस तरह पांच रूपवाले लिंगसे प्रत्यक्षपूर्वक होनेवाला अन्वयव्यतिरेकी अनुमान होता है। केवलान्वयी हेतुमें विपक्षका अभाव होनेसे विपक्षासत्त्व रूप नहीं पाया जाता तथा केवलव्यतिरेकीमें सपक्षका अभाव होनेसे सपक्षसत्त्वरूप नहीं मिलता, इसलिए ये दोनों अनुमान-हेतु चार-चार रूपवाले होते हैं। जैसे-शब्द अनित्य है, क्योंकि वह कार्य है, जो-जो कार्य होते हैं वे-वे अनित्य होते हैं, जैसे कि घट, जो अनित्य नहीं हैं वे कार्य भी नहीं हैं जैसे कि आकाश । यह अन्वय-व्यतिरेकी अनुमान है। अदृष्ट-पुण्यपाप आदि किसीके प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे प्रमेय हैं, जो प्रमेय होते हैं वे किसीके प्रत्यक्ष होते हैं जैसे हाथकी हथेली। इस अनुमानमें अदृष्ट आदि सभी पदार्थों को किसी सर्वज्ञ व्यक्तिके प्रत्यक्षज्ञानका विषय सिद्ध करना प्रस्तुत है। संसारमें सर्वज्ञके अप्रत्यक्ष तो कोई वस्तु है ही नहीं जिसे विपक्ष कह सके, इस तरह विपक्षका अभाव होनेसे इस हेतुमें विपक्षासत्त्व रूप नहीं पाया जाता, इसीलिए यह हेतु केवलान्वयी है। समस्तकार्य सर्वज्ञके द्वारा उत्पन्न किये गये हैं क्योंकि वे १. अथवा त्रिविधमिति । पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं चेति । पूर्व साध्यं तद् व्याप्त्या यस्यास्तीति तत् पूर्ववत् । साध्यतज्जातीयः शेषः तद्यस्यास्तीति तत् शेषवत् । नाम साध्यव्यापकं शेषवदिति समानेऽस्ति । सामान्यतश्चादृष्टम् । चशब्दात् प्रत्यक्षागमाविरुद्धं चेत्येवं चतुर्लक्षणं पञ्च लक्षणमनुमानमिति।" -न्यायवा. पृ. ४६ । २. "अत्राहुः वादादिकथात्रयेऽपि पूर्वमुपादीयमानत्वात्यक्षः पूर्वशब्देनोच्यते सोऽस्यास्त्याश्रयत्वेनेति पूर्ववल्लिङ्गमित्येवमनेन पदेन पक्षधर्मत्वमुक्तं भवति, पक्षे उपयुक्ते सति शेषः सपक्षो भवति सोऽस्यास्त्याश्रयत्वेनेति शेषवत्, एवमनेन सपक्षे वृत्तिरुक्ता भवति, सामान्यतोदृष्टमित्यनेन विपक्षाव्यावृत्तं किङ्गमुच्यते, कथम्, अकारप्रश्लेषात् सामान्यतोऽदृष्टमिति तिष्ठतु तावद्विशेषः सामान्यतोऽपि न दृष्टम्, क्वेति पक्षपक्षयोवृत्तेरुक्तत्वात्परिशेषाद्विपक्षे सामान्यतोऽपि न दृष्टमित्यवतिष्ठते इत्थं त्रिरूपं लिङ्गमेभिः शब्दैरुक्तं भवति, तदालम्बनं ज्ञानमनुमानम् ।" -न्यायम. प्रमा. पृ. ११५। ३. "विपक्षे मनागपि यन्न दृष्टम्' इति नास्ति-आ.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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