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-का० १९ ६३०]
नैयायिकमतम् । प्रत्यक्षता । सुखदुःखसंबन्धस्मृतेस्त्विन्द्रियार्थसंनिकर्षसहकारित्वात्तथा चायमिति सारूप्यज्ञानजनकत्वेनाध्यक्षप्रमाणता। सारूप्यज्ञानस्य च सुखसाधनोऽयमित्यानुमानिकफलजनकत्वेनानुमानप्रमाणता । न च 'सुखसाधनत्वशक्तिज्ञानमिन्द्रियार्थसंनिकर्षजं शक्तेरसंनिहितत्वात् । आत्मनो मनइन्द्रियेण संनिकर्षे सुखादिज्ञानं फलम् । मनइन्द्रियस्य तत्संनिकषस्य च प्रत्यक्षप्रमाणता। एवमन्यत्रापि यथाह प्रमाणफलविभागोऽवगन्तव्य इति।
२९. एतदेवेन्द्रियार्थसंनिकर्षादिसूत्रं ग्रन्थकारः पद्यबन्धानुलोम्येनेत्थमाह । 'इन्द्रियार्थसंपर्कोत्पन्नम्' इत्यादि । अत्र संपर्कः संबन्धः। 'अव्यभिचारि च' इत्यत्र चकारो विशेषणसमुच्चयार्थः। अव्यभिचारिकमिति पाठे त्वव्यभिचार्येवाव्यभिचारिकं स्वार्थे कप्रत्ययः। व्यपदेशो नामकल्पना । अत्रापि व्याख्यायां 'यतः' इत्यध्याहार्यम। भावार्थः सर्वोऽपि प्राग्वदेवेति ।
३०. अथ प्रत्यक्षतत्फलयोरभेदविवक्षया प्रत्यक्षस्य भेदा उच्यन्ते । प्रत्यक्षं द्वधा, अयोगिप्रत्यक्षं योगिप्रत्यक्षं च । यदस्मदादीनामिन्द्रियार्थसंनिकर्षाज्ञानमुत्पद्यते तदयोगिप्रत्यक्षम् । तदपि द्विविधं निर्विकल्पकं सविकल्पं च। तत्र वस्तुस्वरूपमात्रावभासकं निर्विकल्पकं यथा प्रथमाक्षसंनिपातजं ज्ञानम् । संज्ञासंज्ञिसंबन्धोल्लेखेन ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं सबिकल्पकं यथा देवदत्तोऽयं दण्डीत्यादि। 'यह उसके समान है' इस इन्द्रियार्थसन्निकषंज प्रत्यभिज्ञान रूप प्रत्यक्षज्ञानको उत्पन्न करती है। यहाँ प्रत्यभिज्ञान प्रत्यक्ष प्रमाणका फल है तथा स्मृति साधकतम होनेसे प्रत्यक्षप्रमाणरूप है। किन्तु सुखदुःख सम्बन्ध की स्मृति इन्द्रियार्थसन्निकर्षकी सहायतासे 'उसी तरह यह है' इस सादृश्यज्ञानको उत्पन्न करती है अतः वह प्रत्यक्ष प्रमाणरूप है। सादृश्यज्ञान तो 'उसी तरह यह भी सुख साधन है' इस अनुमानरूप फलको उत्पन्न करनेके कारण अनुमान प्रमाणरूप है। क्योंकि सुखसाधनत्वरूप शक्तिका ज्ञान इन्द्रियार्थसन्निकर्षसे नहीं हो सकता, क्योंकि शक्ति अतीन्द्रिय होनेसे सन्निहित नहीं है आत्माका मनरूप इन्द्रियसे सन्निकर्ष होनेपर सुखादिका ज्ञान होता है। यहां सखादिज्ञान फलरूप है तथा मनरूप इन्द्रिय एवं आत्मा और मनका सन्निकर्ष प्रत्यक्षप्रमाणरूप होते हैं। इसी तरह सर्वत्र साधकतम अंशमें प्रमाणरूपता तथा कार्यरूपी अंशमें फलरूपताका विचारकर प्रमाण-फलविभाग समझ लेना चाहिए।
२९. ग्रन्थकारने इसी 'इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्न' सूत्रको पद्यरूपमें परिवर्तित करनेकी इच्छासे 'सन्निकर्ष' की जगह 'सम्पर्क' शब्दका प्रयोग किया है । सम्पर्कका अर्थ है सम्बन्ध, अर्थात् सन्निकर्ष । अव्यभिचारि पदके आगे आया हुआ 'च' शब्द अन्य विशेषणोंका समुच्चय करता है। 'अव्यभिचारिकम्' इस पाठमें अव्यभिचारीको ही अव्यभिचारिक (स्वार्थमें क प्रत्यय करनेपर) कहते हैं। व्यपदेश-शब्दकल्पना । इस व्याख्यामें भी 'यतः' शब्दका अध्याहार कर लेना चाहिए। शेष भावार्थ पूर्वोक्त प्रकारसे ही समझ लेना चाहिए।
३०. 'प्रत्यक्ष' शब्दका प्रयोग प्रमाण तथा फल दोनोंमें ही होता है। अतः प्रत्यक्ष प्रमाण तथा उसके प्रत्यक्ष फलमें अभेद विवक्षा करके प्रत्यक्षके भेद कहते हैं। प्रत्यक्ष दो प्रकारका है१ अयोगिप्रत्यक्ष तथा २ योगिप्रत्यक्ष । हमलोगोंको जो इन्द्रियार्थसन्निकर्षसे ज्ञान उत्पन्न होता है वह अयोगिप्रत्यक्ष है। यह निर्विकल्पक तथा सविकल्पक रूपसे दो प्रकारका है । वस्तुके स्वरूपमात्र का अवभास करानेवाला ज्ञान निर्विकल्पक है। यह इन्द्रियसन्निकर्ष होते ही सबसे पहले उत्पन्न होता है । वाचक-संज्ञा तथा वाच्य-संज्ञाके सम्बन्धका उल्लेख करके होनेवाले शब्द संसृष्ट ज्ञानके निमित्तको सविकल्पक कहते हैं, जैसे यह देवदत्त है, यह दण्डी है इत्यादि।
१. -धनश-भ. २ । २. इति । अत्र भ. २ । ३. कः प्र-भ. २। ४. -क्षरस-भ. २। ५. संज्ञानं संज्ञि-भ.२।
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