________________
षड्दर्शनसमुच्चये
[ का० १९. ६२७तुलासूवर्णादीनां प्रदीपादीनां संनिकर्षेन्द्रियादीनां 'चाबोधरूपाणामप्रत्यक्षत्वप्रसङ्गश्च । इष्यते चैषां सूत्रकृता प्रत्यक्षत्वम् । तन्न स्वरूपविशेषणपक्षो युक्तः।
२७. नापि सामग्रीविशेषणपक्षः, सामग्रीविशेषणपक्षे ह्येवं सूत्रार्थः स्यात्-प्रमातृप्रमेयचक्षुरादीन्द्रियालोकादिका ज्ञानजनिका सामग्री इन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नत्वादिविशेषणविशिष्टज्ञानजननात् उपचारेणेन्द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नत्वादिविशेषणविशिष्टा सती प्रत्यक्षमिति । एवं च सामग्र्याः सूत्रोपात्तविशेषणयोगित्वं तथाविधफलजनकत्वादुपचारेणैव भवति, न तु स्वत इति । न तु युक्तस्तत्पक्षोऽपि।
२८. फलविशेषणपक्षस्तु युक्तिसङ्गतः। अत्र पक्षे 'यतः' इत्यध्याहार्यम् । ततोऽयमर्थ:इन्द्रियार्थसनिकर्षोत्पन्नत्वादिविशेषणं ज्ञानं यत इन्द्रियार्थसंनिकर्षादेर्भवति, स इन्द्रियार्थसंनिकर्षादिः प्रत्यक्ष प्रमाणम् । ज्ञानं च प्रत्यक्षप्रमाणफलम्। यदा तु ततोऽपि ज्ञानाद्वानोपादानादिबुद्धय उत्पद्यन्ते, तदा हानाविबुद्धयपेक्षया ज्ञानं प्रमाणं हानादिबुद्धयस्तु फलम् । “यदा ज्ञानं प्रमाणं तदा हानादिबुद्धयः फलम्।" [ न्यायभा. ११११३ ] इति वचनात् । यथा चानुभवज्ञानवंशजायाः स्मृतेस्तथा चायमित्येतज्ज्ञानमिन्द्रियार्थसंनिकर्षजत्वात्प्रत्यक्षफलम् । तत्स्मृतेस्तु नहीं है, क्योंकि प्रमाके प्रति साधकतम कारकको ही प्रमाण कहते हैं। जो अकारक है वह साधकतम हो ही नहीं सकता। स्वरूपविशेषण पक्षमें ज्ञान ही प्रमाण होता है अतः तौलने में साधकतमभूत तराजू तथा सोनेके बाँट आदि, दीपक आदि और सन्निकर्ष तथा इन्द्रिय आदि अज्ञानरूप होनेसे प्रत्यक्षप्रमाण नहीं हो सकेंगे। पर, सूत्रकारने इन्हें साधकतम होनेसे प्रमाण माना है। अतः स्वरूपविशेषण पक्ष किसी भी तरह युक्त नहीं है।
२७. इसी तरह सामग्रीविशेषण पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि सामग्रीविशेषण पक्षमें सूत्रका यह अर्थ होता है-'प्रमाता, प्रमेय, चक्षुरादि इन्द्रियाँ तथा प्रकाश आदि ज्ञानोत्पादक सामग्री प्रत्यक्ष प्रमाण रूप है। चूंकि इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्व आदि विशेषणोंसे विशिष्ट ज्ञानको उत्पन्न करती है अतः इसमें भी उपचारसे इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्व आदि विशेषणोंका अन्वय हो जाता है, यह भी उक्त विशेषणोंसे विशिष्ट होकर प्रमाण है। इस तरह सूत्र में कहे गये विशेषणोंका साक्षात् सम्बन्ध सामग्रीमें नहीं हुआ, किन्तु उक्त विशेषण विशिष्ट ज्ञानको उत्पन्न करने के कारण उपचारसे ही सामग्रीमें उक्त विशेषणोंका सम्बन्ध हुआ स्वतः नहीं। अतः उपचाररूप प्रमाणता लानेवाला यह पक्ष भी उचित नहीं है।
२८. हां, फलविशेषण पक्ष निर्दोष तथा युक्तिसंगत है । इस पक्षमें 'यतः-जिससे' शब्दका अध्याहार करना चाहिए। तब यह अर्थ होगा कि-इन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्व आदि विशेषणवाला ज्ञान यतः-जिस इन्द्रियार्थसन्निकर्ष आदिसे होता है वह इन्द्रियार्थसन्निकर्ष आदि प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। ज्ञान तो प्रत्यक्ष प्रमाणका फल है। हां, जब उस ज्ञानसे भी उत्तरकालमें हानोपादानादि बुद्धियां उत्पन्न होती हैं तब हानोपादानबुद्धि की अपेक्षा ज्ञान प्रमाण होता है तथा हानादिबुद्धियाँ फल। "जब ज्ञानको प्रमाणता होती है तब हानादिबुद्धियां फलरूप होंगी।" यह पुरातन आचार्योंका कथन है। इसी तरह अनुभवज्ञानसे संस्कार होता है, तथा संस्कारसे होनेवाली स्मृति
१.-वा बोध-प. १, २, भ. २। २. “यदा संनिकर्षस्तदा ज्ञान प्रमितिः, यदा ज्ञानं तदा हानोपादानोपेक्षाबुद्धयः फलम् ।.." -न्यायमा. १११३ । “तत्र सामान्यविशेषेषु स्वरूपलोचनमा प्रत्यक्ष प्रमाणम्""प्रमितिः द्रव्यादिविषयं ज्ञानम्"अथवा सर्वेषु पदार्थेषु चतुष्टयसंनिकर्षादवितथमव्यपदेश्य यज्ज्ञानमुत्पद्यते तत्प्रत्यक्ष प्रमाणम्"प्रमितिः गुणदोषमाध्यस्थ्यदर्शन मिति ।" -प्रश. मा. पृ. १८७।
-न्यायवा. पृ. २९ । “प्रमाणतायां सामग्रघास्तज्ज्ञानं फलमिष्यते । तस्य प्रमाणभावे तु फलहानादिबुद्धयः॥" -न्यायम. प्रमा, पृ. १२। ३. तु भ. १, २, क.। ४.-ज्ञातवंश-भ. २ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org