________________
षड्दर्शनसमुच्चये
[का० १९६३१६ ३१. “योगिप्रत्यक्षं तु देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थग्नाहकम् । तद्विविधं युक्तानां प्रत्यक्षं वियुक्तानां च। तत्र समाध्यैकाग्र्यवतां योगजधर्मेश्वराविसहकृतादात्मान्तःकरणसंयोगादेव बाह्यार्थसंयोगनिरपेक्षं यदशेषार्थग्रहणं तयुक्तानां प्रत्यक्षम् । एतच्च निर्विकल्पकमेव भवति, विकल्पतः समाध्यैकाग्र्यानुपपत्तेः । इदं चोत्कृष्टयोगिन एव विज्ञेयं योगिमात्रस्य तदसंभवात् । असमाध्यवस्थायां योगिनामात्ममनोबाह्येन्द्रियरूपाद्याश्रयचतुष्कसंयोगाद्रूपादीनाम् आत्ममनःश्रोत्रत्रयसंयोगाच्छब्दस्य, आत्ममनोद्वयसंयोगात्सुखादीनां च यद्ग्रहणं तद्वियुक्तानां प्रत्यक्षम् । तच्च निर्विकल्पकं सविकल्पकं च प्रतिपत्तव्यम् ।" विस्तरार्थिना तु न्यायसारटीका विलोकनीयेति । ... $३२. अथानुमानलक्षणमाह 'अनुमानं तु तत्पूर्व त्रिविधं भवेत्पूर्ववच्छेषवच्चैव' इत्यादि । अत्र चैवशब्दौ पूर्ववदादीनामर्थबाहुल्यसूचकौ । तथाशब्दश्चंकारार्थः समुच्चये। शेषं तु सूत्रव्याख्य. यैव व्याख्यास्यते। सूत्रं त्विदम् - "तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं, पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतो दृष्टं च" [ ] इति । एके व्याख्यान्ति-अत्रकस्य पूर्वकशब्दस्य सामान्यश्रु त्या लुप्तनिर्देशो द्रष्टव्यः।
३१. योगिप्रत्यक्ष दूरदेशवर्ती अतीतानागतकालवर्ती तथा सूक्ष्मस्वभाववाले यावत् अतीन्द्रिय पदार्थों को जानता है। योगिप्रत्यक्ष स्वामीके भेदसे दो प्रकारका है। १ युक्त-योगिप्रत्यक्ष, २ वियुक्त-योगिप्रत्यक्ष। समाधिसे जिनका चित्त परम एकाग्रताको प्राप्त हुआ है उन युक्त योगियोंको, योगजधर्म तथा ईश्वरादि जिसमें सहकारी हैं ऐसे आत्मा तथा अन्तःकरणके संयोगमात्रसे जो सम्पूर्ण पदार्थोंका यथावत् परिज्ञान होता है वह युक्त-योगिप्रत्यक्ष है। इसमें बाह्य अर्थों के सन्निकर्ष की आवश्यकता नहीं है। यह प्रत्यक्ष निर्विकल्पक ही होता है, क्योंकि समाधिकी एकाग्रतामें विकल्प की सम्भावना ही नहीं है, विकल्प होते ही समाधिकी एकाग्रता टूट जाती है। यह प्रत्यक्ष उत्कृष्ट योगियोंको ही होता है, सभी योगियोंको इसके होनेका नियम नहीं है। समाधिसे रहित अवस्थामें वियुक्त समाधिशून्य योगियोंको, आत्मा, मन, बाह्य इन्द्रियां तथा रूपादि पदार्थ इन चारके सन्निकर्षसे रूपादिका, आत्मा, मन और श्रोत्र इन तीनके सन्निकर्षसे शब्दका तथा आत्मा और मन दो के संयोगसे सुखादिका जो ज्ञान होता है वह वियुक्त-योगिप्रत्यक्ष कहलाता है। यह निर्विकल्पक तथा सविकल्पक दोनों प्रकारका होता है । इनका विशेष विवरण न्यायसारटीकामें देखना चाहिए।
३२. 'अनुमानं तु तत्पूर्व त्रिविधं भवेत् । पूर्ववच्छेषवच्चैव' इत्यादि श्लोकांशमें अनुमानका स्वरूप कहा गया है। श्लोकमें आये हए 'च' और 'एव' शब्द पूर्ववत् आदि पदोंकी अनेक व्याख्याओंकी सूचना देते हैं । 'तथा' शब्द चकारके स्थानमें प्रयुक्त हुआ है। यह समुच्चयार्थक है । श्लोककी शेष व्याख्या 'पूर्ववत्' आदि न्यायसूत्रकी निम्नलिखित व्याख्यासे ही गतार्थ हो जाती है। "तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत् सामान्यतोदृष्टं च'' यह न्यायदर्शनका अनुमानसूत्र है। कोई व्याख्याकार 'तत्पूर्वक में एक पूर्वकशब्दका लुप्तनिर्देश मानते हैं। उनका तात्पर्य है कि 'तत्पूर्वक में दो पूर्वकशब्द थे उनमें-से समानश्रुति होनेके कारण व्याकरणके नियमके अनुसार एक पूर्वकशब्दका लोप हो गया है और एक पूर्वक शब्द शेष बचा है। अतः अर्थ करते समय 'तत्पूर्वक
१. “योगिप्रत्यक्षं तु देशकालस्वभावविप्रकृष्टार्थग्राहकम् । तद्विविधम् । युक्तावस्थायामयुक्तावस्थायां चेति । यत्र युक्तावस्थायामात्मान्तःकरणसंयोगादेव धर्मादिसहितादशेषार्थग्राहकम् । वियुक्तावस्थायां चतुष्टयत्रयद्वयसंनिकर्षाद्ग्रहणम्। यथासंभावनं योजनीयम् । अत्रैवार्षमप्यन्त तं प्रकृष्टधर्मजत्वाविशेषादिति । तच्च द्विविधं सविकल्पकं निर्विकल्पकं चेति । तत्र संज्ञादिसंबन्धोल्लेखेन ज्ञानोत्पत्तिनिमित्तं सविकल्पकम् यथा देवदत्तोऽयं दण्डीत्यादि । वस्तुस्वरूपमात्रावभासकं निर्विकल्पकं यथा प्रथमाक्षसंनिपातजं ज्ञानम् । युक्तावस्थायां योगिज्ञानं चेति ।" -न्यायसा, पृ.३। २. योगधर्मे-आ., क.. प. २। ३. यदि शेषार्थसंयोगनिरपेक्षं यदशे-भ. २। ४-श्चकारोऽर्थस-भ. २। ५. सूत्रं व्याख्यास्य-क.। ६. ख्यातं भावि सूत्रं भ. २ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org