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षड्दर्शनसमुच्चये
[का० १९. ६२१६ २१. अव्यपदेश्यं नामकल्पनारहितं नामकल्पनायां हि शाब्दं स्यात् । अव्यपदेश्यपदग्रहणाभावे हि व्यपदेशः शब्दस्तेनेन्द्रियार्थसंनिकर्षेण चोभाभ्यां यदुत्पादितं ज्ञानं तदप्यध्यक्षफलं स्यात्तनिवृत्त्यर्थमव्यपदेश्यपदोपादानम्। इदमत्र तत्त्वम्-चक्षुर्गोशब्दयोापारे सति 'अयं गौः' इति विशिष्टकाले यज्ज्ञानमुपजायमानमुपलभ्यते, तच्छन्देन्द्रियोभयजन्यत्वेऽपि प्रभूतविषयत्वेन शैब्दस्य प्राधान्याच्छाब्दमिष्यते, न पुनरध्यक्षमिति ।
६२२. इन्द्रियजन्यस्यं मरुमरीचिकासूदकज्ञानस्य, शुक्तिशकले कलधौतबोधादेश्व निवत्यर्थमव्यभिचारिपदोपादानम् । यदतस्मिस्तदित्युत्पद्यते तद्वयभिचारि ज्ञानम्, तद्वयवच्छेदेन तस्मिस्तदिति ज्ञानमव्यभिचारि ।
२३. व्यवसीयतेऽनेनेति व्यवसायो विशेष उच्यते। विशेषजनितं व्यवसायात्मकम् । अथवा व्यवसायात्मकं निश्चयात्मकम् । एतेन संशयज्ञानमनेकपदार्थालम्बनत्वादनिश्चयात्मक
६२१, अव्यपदेश्य-शब्दकी कल्पनासे रहित । 'यदि प्रत्यक्ष ज्ञानमें शब्दकल्पना हो जाये तब तो वह भी शाब्द ही हो जायेगा। यदि अव्यपदेश्य पद न हो तब व्यपदेश-शब्द तथा इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष दोनोंसे जो ज्ञान उत्पन्न होता है वह प्रत्यक्षका फल है' यह अर्थ फलित होगा, इसकी निवृत्तिके लिए अव्यपदेश्य पदका ग्रहण किया है। तात्पर्य यह कि चक्षुरिन्द्रिय तथा गोशब्दका युगपत् व्यापार होनेपर 'यह गौ है' यह विशिष्ट ज्ञान उत्पन्न होता है। इस ज्ञानमें यद्यपि आंखका गौके साथ सन्निकर्ष होना तथा गो शब्दका सुनना दोनों ही कारण हो रहे हैं फिर भी शब्दकी मुख्यता होनेके कारण अथवा शब्दके व्यापारका अधिक भाग होनेसे इस ज्ञानको शाब्द ही मानते हैं प्रत्यक्ष नहीं। शब्दको प्रधानताका कारण है 'यह गो है' इस ज्ञानकी उत्पत्तिमें अधिक हाथ बंटाना, इसमें मुख्यरूपसे भाग लेना तथा अधिक विषयका होना।
६२२. मरुस्थलकी रेतमें जलका ज्ञान तथा सीपमें चांदोका ज्ञान विपरीत है, व्यभिचारो है, अतः ऐसे ज्ञानोंकी निवृत्तिके लिए अव्यभिचारी पदका ग्रहण किया है। जो पदार्थ जिस रूप नहीं है उसमें उस रूपका ज्ञान होना विपर्यय है। इस विपर्ययका व्यवच्छेद करके जो पदार्थ जिस रूप है उसका उसी रूपमें ज्ञान करनेवाला अव्यभिचारी कहलाता है।
२३. वि-विशेष रूपसे अवसाय निश्चय किया जाये जिसके द्वारा, उसे व्यवसाय अर्थात् विशेष कहते हैं। विशेषजनित ज्ञान व्यवसायात्मक कहलाता है। अथवा व्यवसायात्मकका सीधा अर्थ है निश्चयात्मक । इस विशेषणसे अनेक पदार्थों में चलितरूपसे झूलनेवाले अनिश्चयात्मक
१. "तत्र वृद्धनैयायिकास्तावदाचक्षते, व्यपदिश्यते इति व्यपदेश्यं शब्दकर्मतामापन्नं ज्ञानमुच्यते यदिन्द्रियार्थसंनिक दुत्पन्नं सद्विषयनामधेयेन व्यपदिश्यते रूपज्ञानं रसज्ञानमिति तव्यपदेश्यं ज्ञानं प्रत्यक्षफलं मा भूदित्यव्यपदेश्यग्रहणम् ।"--न्यायम. प्रमा. पृ. ७३ । "यावदर्थं वै नामधेयशब्दास्तैरर्थसंप्रत्ययोऽर्थसंप्रत्ययाच्च व्यवहारः तत्रेदमिन्द्रियार्थसन्निकर्षात्पन्नमर्थज्ञानं-रूपमिति जानीते रस इति जानीते नामधेयशब्देन व्यपदिश्यमानं सत् शाब्दं प्रसज्यते अत आह-अव्यपदेश्य मिति ।"-न्यायमा. १११।४। २. तच्छब्दोभयजन्यान्वयिप्रभूतविषय-भ. २। ३. शाब्दस्य भ. २। ४. -स्य मरीचिषदक- प. १, २. भ. १.२। ५. "ग्रीष्मे मरीचयो भौमेनोमणा संसृष्टाः स्पन्दमाना दूरस्थस्य चक्षुषा संनिकृष्यन्ते तत्रेन्द्रियार्थसन्निकर्षात उदकमिति ज्ञानमुत्पद्यते तच्च प्रत्यक्ष प्रसज्यते इत्यत आह-अव्यभिचारीति । यद् अतस्मिन् तदिति तद् व्यभिचारि । यत्तु तस्मिन् तदिति तद् अव्यभिचारि प्रत्यक्षमिति ।"
-न्यायमा. १।१४। ६. "दूराच्चक्षुषा हथं पश्यन् नावधारयति-धूम इति वा रेणुरिति वा तदेतद् इन्द्रियार्थसन्निकर्षीत्पन्नमनवधारणज्ञानं प्रत्यक्षं प्रसज्यते इत्यत आह-व्यवसायात्मकमिति ।" -न्यायमा. १।१।४।
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