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- का० १९. $२० ]
नैयायिकमतम् ।
दृश्याभावयोविशेषणत्वं विशेष्यत्वं वा भवतीत्यर्थः । तद्यथा - तन्तवः पटसमवायवन्तः तन्तुषु पटसमवाय इति । घटशून्यं भूतलमिह भूतले घटो नास्तीति ६ षोढा सन्निकर्षः ।
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$ १८. अथ निकर्षग्रहणमेवास्तु संग्रहणं व्यर्थम्, न सं-शब्दग्रहणस्य सन्निकर्षषट्कप्रतिपादनार्थत्वात् । एतदेव सन्निकर्षषट्कं ज्ञानोत्पादे समर्थ कारणम्, न संयुक्तसंयोगादिकमिति 'सं' ग्रहणाल्लभ्यते ।
अत्रायं
१९. इन्द्रियार्थ संनिकर्षादुत्पन्नं जातम् । उत्पत्तिग्रहणं कारकत्वज्ञापकार्थम् । भावः - इन्द्रियं हि नैकटचादर्थेन सह संबध्यते, इन्द्रियार्थसंबन्धाच्च ज्ञानमुत्पद्यते । यदुक्तम्"आत्मा सहति मनसा मन इन्द्रियेण, स्वार्थेन चेन्द्रियमिति क्रम एष शीघ्रः । योगोऽयमेव मनसः किमगम्यमस्ति, यस्मिन् मनो व्रजति तत्र गतोऽयमात्मा || १ || "
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$ २०. ज्ञान संग्रहणं सुखादिनिवृत्त्यर्थं सुखादीनामज्ञानरूपत्वात् । सुखादयो ह्याह्लादादिस्वभावा ग्राह्यतयानुभूयन्ते, ज्ञानं त्वर्थावगमस्वभावं ग्राहकतयानुभूयत इति ज्ञानसुखाद्योर्भेदोऽध्यक्षसिद्ध एव ।
वाले हैं', यहाँ समवायकी विशेषण रूपसे तथा 'तन्तुमें पटका समवाय है' यहां समवाय की विशेष्यरूपसे प्रतीति होती है। इसी तरह 'भूतल घटसे रहित है' यहाँ अभाव विशेषणरूपसे तथा 'इस भूतल में घट नहीं है' यहाँ अभाव विशेष्यरूपसे अनुभवमें आता है । इस प्रकार छह प्रकारका सन्निकर्ष है ।
$ १८. शंका – 'सन्निकर्ष' के स्थान में निकर्ष ही कहना चाहिए 'सम्' उपसर्गका ग्रहण करना व्यर्थ है; क्योंकि निकर्ष ग्रहण करने से भी सम्बन्धका बोध तो हो ही जाता है ?
समाधान - 'सम्' शब्दका ग्रहण छह प्रकारके ही सन्निकर्षका प्रतिपादन करनेके लिए है । ये ही छह सन्निकर्षं ज्ञान की उत्पत्ति में समर्थ कारण हैं, संयुक्तसंयोग आदि नहीं । यही 'सम्' के ग्रहण करनेसे सूचित होता है ।
$ १९. “इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे उत्पन्न होनेवाले" यहाँ उत्पत्तिका ग्रहण कारक पक्षकी सूचना देता है । तात्पर्य यह कि इन्द्रियाँ निकटता के कारण पदार्थ के साथ सम्बद्ध होती हैं, फिर इन्द्रिय और अर्थका सम्बन्ध होनेपर ज्ञान उत्पन्न होता है । कहा भी है " आत्मा मनसे सम्बद्ध होता है, मन इन्द्रियोंसे तथा इन्द्रियाँ अपने विषयभूत पदार्थसे । यह सम्बन्ध परम्परा बहुत ही शीघ्र होती है, इसीका नाम सम्बन्ध या सन्निकर्ष है । मनके लिए कोई भी वस्तु अग नहीं है । जहाँ मन जाता है वहीं आत्मा भी पहुँच जाता है ||१|| "
$ २०. ज्ञान शब्दका ग्रहण सुखादिमें प्रत्यक्षरूपताका निराकरण करनेके लिए किया गया है, क्योंकि सुखादिक अज्ञानस्वरूप हैं । ज्ञान तो पदार्थका अवभ्रम अर्थात् बोध कराता है, वह अर्थ - का ग्राहक होता है, जबकि आह्लादरूप सुखादि ग्राह्य होते हैं । यह ज्ञान और सुखादिका भेद तो प्रत्यक्षसे ही अनुभव में आता है ।
१. - व्यत्वं भव- आ. क., प. २ । 'आत्मा मनसा युज्यते मन इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थेनेति ।" न्यायमा. १।।।४ । २. तुलना - आत्मा मनसा संयुज्यते मन इन्द्रियेण इन्द्रियमर्थेनेति ।" न्यायम. पृ. ७० । ३. “अथ ज्ञानग्रहणं किमर्थम् ? सुखादिव्यवच्छेदार्थम् ।" - न्यायवा. पृ. ३६ । “अथ वा सुखादिव्यावृत्त्यर्थं ज्ञानपक्षोपादानम् ।" -न्यायम, प्रमा. पृ. ७० ।
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