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________________ -का० १९.६१७] नैयायिकमतम्। ष्टार्थोपलब्धिजनिका सामग्री तदेकदेशो वा चक्षुःप्रदीपज्ञानादिर्बोधरूपोऽबोधरूपो वा साधकतमत्वात्प्रमाणमा तज्जनकत्वं च तस्य प्रामाण्यमतज्जन्या त्वोपलब्धिः फलमिति । इन्द्रियजत्व. लिङ्गजत्वादिविशेषणविशेषिता सैवोपलब्धिय॑तः स्थात्, तदेव प्रत्यक्षादिप्रमाणस्थ विशेषलक्षणं वक्ष्यते । केवलमत्राव्यपदेश्यमिति विशेषणं न शाब्दे सम्बन्धनीयं तस्य शब्दजन्यत्वेन व्यपदेश्यत्वात् । अथ प्रमाणस्य भेदानाह-'तच्चतुर्विधम्' तत्प्रमाणं चतुर्विधं चतुर्भेदम् ॥१४-१६॥ १६. अथ तच्चातुर्विध्यमेवाह प्रत्यक्षमनुमान चोपमान शाब्दिकं तथा । तत्रेन्द्रियार्थसंपर्कोत्पन्नमव्यभिचारि च ।।१७।। व्यवसायात्मकं ज्ञानं व्यपदेशविवर्जितम् ।। प्रत्यक्षमनुमानं तु तत्पूर्व त्रिविधं भवेत् ॥१८॥ पूर्ववच्छेषवच्चैव दृष्टं सामान्यतस्तथा। तत्राचं कारणात्कार्यानुमानमिह गीयते ॥१९॥ १७. व्याख्या-प्रत्यक्षमध्यक्ष, अनुमान लैङ्गिकं, चकारः समुच्चयार्थः, उपमानमुपमितिः, तथाशब्दस्य समुच्चयार्थत्वाच्छाब्दिकं च शब्दे भवं शाब्दिकमागम इत्यर्थः। अथ प्रत्यक्षस्य अव्यभिचार आदि विशेषणोंसे युक्त अर्थोपलब्धिको उत्पन्न करनेवाली पूर्ण सामग्री, अथवा सामग्रोके एक-एक भाग चक्ष, दीपक, ज्ञान आदि, चाहे ये ज्ञान रूप हों या अचेतन, यदि अर्थोपलब्धिमें साधकतम-कारण होते, हैं तो प्रमाण हैं । अर्थोपलब्धिको जनकता ही प्रमाणता है। उस सामग्रीसे उत्पन्न होनेवाली अर्थोपलब्धि फल है। यही अर्थोपलब्धि जब इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न होती है तब प्रत्यक्ष कहलाती है और जब लिंगसे उत्पन्न होती है तब अनुमान कही जाती है। इसी तरह विशेष प्रमाणोंके लक्षण आगे कहेंगे। केवल शाब्दप्रमाणका लक्षण करते समय 'अव्यपदेश्य' विशेषणका सम्बन्ध अर्थोपलब्धि नहीं करना चाहिए, क्योंकि शाब्द-आगमज्ञान तो शब्दजन्य होनेसे व्यपदेश्य ही है। वह प्रमाण चार प्रकारका है ।।१४-१६॥ $१६. अब प्रमाणके चार प्रकारोंका वर्णन करते हैं प्रत्यक्ष. अनमान. उपमान तथा शाब्दिक-आगम ये चार प्रकारके प्रमाण हैं। इनमें इन्द्रिय और पदार्थके सन्निकर्षसे उत्पन्न होनेवाले, अव्यभिचारि-संशय-विपर्यय आदि दोषोंसे रहित, व्यवसायात्मक-निश्चयात्मक तथा व्यपदेश-'यह रूप है, यह रस है' इत्यादि शब्दप्रयोगसे रहित ज्ञानको प्रत्यक्ष प्रमाण कहते हैं। प्रत्यक्षपूर्वक उत्पन्न होनेवाला अनुमान ज्ञान पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्टके भेदसे तीन प्रकारका है। इनमें कारणसे कार्यके अनुमानको पूर्ववत् कहते हैं ॥१७-१९॥ $ १७, श्लोकमें 'च' और 'तथा' शब्द समुच्चयार्थक हैं। प्रत्यक्ष, अनुमान-लैङ्गिक उपमान-उपमिति तथा शब्दसे होनेवाला शाब्दिक-ये चार प्रमाण हैं। उन प्रमाणोंमें सर्वप्रथम १. "अव्यभिचारिणीमसन्दिग्धामर्थोपलब्धि विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री प्रमाणम् । बोधाबोधस्वभावो हि तस्य स्वरूपम्, अव्यभिचारादिविशेषणार्थो पलब्धिसाधनत्वं लक्षणम् ।" न्यायमं. पृ. १२ । २. तज्जन्यार्थोप-आ., क.। तज्जन्यान्वयोप-भ. २ । ३. "प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि ।"-न्यायसू. १।१३। ४. “अथ तत्पूर्वक विविधमनुमानम-पूर्ववत, शेषवत, सामान्यतोदृष्टं च ।" न्यायसू. ११५। ५. “पूर्ववदिति यत्र कारणेन कार्यमनमीयते यथा मेघोन्नत्या भविष्यति वृष्टिरिति ।"-न्यायभा. ११५ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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