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________________ षड्दर्शनसमुच्चये [का० १३. ६१३ - "अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥२॥" [ महाभा. वनप. ३०।२८ ] ६१३. अथवा नित्यैकसर्वज्ञ इत्येकमेव विशेषणं व्याख्येयम् । नित्यः सदैकोऽद्वितीयः सर्वज्ञो नित्यैकसर्वज्ञः। एतेनानादिसर्वज्ञमीश्वरमेकं विहायान्यः कोऽपि सर्वज्ञः कदापि न भवति । यत ईश्वरादन्येषां योगिनां ज्ञानान्यपरं सर्वमतीन्द्रियमर्थ जानानान्यपि स्वात्मानं न जानते, ततस्ते कथं सर्वज्ञाः स्युरित्यावेदितं भवति । १४. तथा नित्यबुद्धिसमाश्रयो नित्याया बुद्धे नस्य स्थानम्, क्षणिकबुद्धिमतो हि पराधीनकार्यापक्षणेन मुख्यकर्तृत्वाभावादनीश्वरत्वप्रसक्तिरिति । ईदृशविशेषणविशिष्टो नैयायिकमते शिवो देवः ॥१३॥ अथ तन्मते तत्त्वानि विवरिषुः प्रथमं तेषां संख्यां नामानि च समाख्याति तत्वानि षोडशामुत्र प्रमाणादीनि तद्यथा। प्रमाणं च प्रमेयं च संशयश्च प्रयोजनम् ॥१४॥ दृष्टान्तोऽप्यथ सिद्धान्तोऽवयवास्तनिर्णयौ । बादो जल्पो वितण्डा च हेत्वाभासाश्छलानि च ॥१५॥ जातयो निग्रहस्थानान्येषामेवं प्ररूपणा ।। अर्थोपलब्धिहेतुः स्यात्प्रमाणं तच्चतुर्विधम् ॥१६॥ (त्रिभिविशेषकम्) अनादि सिद्ध हैं, सहज हैं ।।१।। यह बिचारा अज्ञ तथा अनीश्वर-असमर्थ संसारीजन्तु अपने सुखदुःख भोगने के लिए ईश्वरके द्वारा प्रेरित होकर स्वर्ग तथा नरक जाता है। ईश्वर कर्मके अनुसार संसारियोंको स्वर्ग तथा नरकमें भेजता है ॥२॥" १३. अथवा 'नित्य, एक तथा सर्वज्ञ' इन तीनोंको पृथक् तीन विशेषण न मानकर 'नित्यैकसर्वज्ञ' ऐसा एक समूचा विशेषण मानना चाहिए। इसका अर्थ है कि ईश्वर सदैव एक अद्वितीय सर्वज्ञ रहा है, दूसरा कोई नित्य सर्वज्ञ नहीं है। इस अनादि सर्वज्ञ एक ईश्वरको छोड़कर कोई भी कभी भी सर्वज्ञ नहीं हुआ। ईश्वरके अतिरिक्त अन्य योगी यद्यपि संसारके समस्त अतीन्द्रिय पदार्थों को जानते हैं पर वे अपने स्वरूपको नहीं जानते, उनका ज्ञान अस्वसंवेदी है, अतः ऐसे अनात्मज्ञ योगी सर्वज्ञ कैसे हो सकते हैं ? १४. ईश्वरकी बुद्धि नित्य है, शाश्वत है । यदि ईश्वरकी बुद्धि क्षणिक हो; तो उस बुद्धिकी उत्पत्तिमें भी अन्य कारणोंकी आवश्यकता होगी, अतः क्षणिक बुद्धिवाला ईश्वर स्वयं पराधोन हो जायेगा और इस तरह वह मुख्यरूपसे कर्ता न बन सकनेके कारण अनीश्वर हो जायेगा। इस तरह नैयायिकोंके भगवान् शिव जगत्कर्तृत्वादि विशेषणोंसे युक्त हैं ॥१३॥ अब नैयायिकोंके तत्वोंके वर्णन करनेकी इच्छासे, सर्वप्रथम उनके नाम तथा उनकी संख्याका कथन करते हैं नैयायिकोंके मतमें प्रमाण आदि सोलह तत्त्व हैं-१ प्रमाण, २ प्रमेय, ३ संशय, ४ प्रयोजन, ५ दृष्टान्त, ६ सिद्धान्त, ७ अवयव, ८ तर्क, ९ निर्णय, १० वाद, ११ जल्प, १२ वितण्डा, १३ हेत्वा १. अन्यो जन्तु-प. १, २, भ. १, २। २. प्रमाणप्रमेयसंशयप्रयोजनदृष्टान्तसिद्धान्तावयवतर्कनिर्णयवादजल्पवितण्डाहेत्वाभासच्छलजातिनिग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानाद् निःश्रेयसाधिगमः ।"-न्यायसू. १११११। ३. "उपलब्धिहेतुश्च प्रमाणम् ।" -न्यायमा. २।१।११। न्यायवा. पृ. ५। "उपलब्धिसाधनानि प्रमाणानि।" -न्यायमा. ११३। “तदेव ज्ञानमज्ञानं वा उपलब्धिहेतुः प्रमाणम्।" -न्यायवा. ता. टी. पृ. १२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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