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________________ - का० १३.६१२] नैयायिकमतम् । जगत्कर्ता स्यात्, तदा तस्याप्यपरेण का भाव्यम्, अनित्यत्वादेव । अपरस्यापि च कर्तुरन्येन का भवनीयमित्यनवस्थानदी दुस्तरा स्यात् । तस्मान्नित्य एवाभ्युपगमनीयः। ११. नित्योऽपि स एकोऽद्वितीयो मन्तव्यः । बहूनां हि जगत्कर्तृत्वस्वीकारे परस्परं पृथक पृथगन्यान्यविसदृशमतिव्यापृतत्वेनैकैकपदार्थस्य विसदृशनिर्माणे सर्वमसमञ्जसमापद्यतेति युक्तम् 'एकः' इति विशेषणम्।। १२ एकोऽपि स सर्वज्ञः सर्वपदार्थानां सामस्त्येन ज्ञाता। सर्वज्ञत्वाभावे हि विधित्सितपदार्थोपयोगिजगत्प्रसृमरविप्रकोणपरमाणुकणप्रचयसम्यक्सामग्रोमीलनाक्षमतया याथातथ्येन पदा. र्थानां निर्माणं दुर्घट भवेत् । सर्वज्ञत्वे पुनः सकलप्राणिनां संमोलितसमुचितकारणकलापानरूप्येण कार्य वस्तु निर्मिमाणः स्वाजितपुण्यपापानुमानेन ( नुसारेण ) च स्वर्गनरकयोः सुखदुःखोपभोगं ददानः सर्वथौचिती नातिवर्तेत । तथा चोक्तं तद्भक्तैः __ "ज्ञानमप्रतिघं यस्य वैराग्यं च जगत्पतेः। . ऐश्वर्य चैव धर्मश्च सहसिद्ध चतुष्टयम् ॥१॥" . कारणोंकी अपेक्षा करेगा, इसलिए वह कृतक हो जायेगा। अपनी उत्पत्तिमें परके व्यापारकी अपेक्षा रखनेवाला पदार्थ कृतक माना जाता है । यदि ईश्वर स्वयं कृतक होकर भी जगत्कर्ता है तब ईश्वरको बनानेवाला भी अन्य कर्ता होना चाहिए । वह ईश्वरका कर्ता भी अनित्य होगा, अतः उसका भी अन्य कर्ता मानना होगा। इस तरह नये-नये कर्ताओंकी कल्पनारूपी अनवस्था नदीको पार करना कठिन हो जायेगा । अतः ईश्वरको नित्य मानना ही उचित है। ११. नित्य मानकर भी उसे एक अद्वितीय मानना चाहिए। यदि अनेक ईश्वर माने जायें; तो अनेकों स्वतन्त्र विचारवाले ईश्वरोंमें एक ही पदार्थके अमुक स्वरूप में उत्पन्न करनेके विषयमें मतभेद होनेपर पदार्थका उत्पन्न होना ही कठिन हो जायेगा और यदि उत्पन्न भी हुआ तो विसदृश आकारवाला उत्पन्न होगा । अर्थात् एक ईश्वर चाहेगा कि आदमीको नाक आँखके नीचे बनायी जाय तो दूसरेकी इच्छा होगी कि नहीं, नाकको सिरके पीछे बनाना चाहिए, तो तीसरा क्यों चुप बैठेगा, वह भी अपनी इच्छानुसार नाकको गलेके नीचे बनाना चाहेगा। इसलिए इस बहुनायकत्वमें बड़ी अव्यवस्था होनेकी सम्भावना है अतः एक ही ईश्वर मानना उचित है। ६१२. एक मानकर भी उसे सर्वज्ञ अवश्य ही मानना चाहिए। सभी पदार्थों की सभी दशाओंका साक्षात्कार करना ही ईश्वरको सर्वज्ञता है। यदि ईश्वर सर्वज्ञ न हो; तब उसे उत्पन्न किये जानेवाले कार्योंकी रचनामें उपयोगी होनेवाले जगत्के कोने-कोने में फैले हुए विचित्र परमाणुकणोंका सम्यक् परिज्ञान न होनेसे उन्हें जोड़कर पदार्थों का यथावत् निर्माण करना अत्यन्त कठिन हो जायेगा । सर्वज्ञ होनेपर तो वह सभी प्राणियोंके उपभोगके लायक कार्योंकी सामग्रीको बराबर जुटा लेगा और उनके पुण्य-पापके अनुसार साक्षात्कार करके सुख-दुःखरूप फल भोगने के लिए उन्हें स्वर्ग और नरक आदिमें भी भेज सकेगा। इस तरह ईश्वर सर्वज्ञ होनेसे उचितका उल्लंघन नहीं करता। किन्हीं ईश्वर-भक्तोंने कहा भी है "उस जगत्पति ईश्वरके अव्याहत-सर्वव्यापी ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य तथा धर्म-ये ज्ञानादि चतुष्टय सह-सिद्ध अर्थात् एक साथ रहनेवाले या जबसे ईश्वर है तभीसे उसके साथ रहनेवाले १. एकोऽपि सर्व-आ., क.। एकोऽपि स सर्वपदा-भ. २। २. पुनः संमी-भ. २। ३. -नुरूपेण भ. . २ । ४. तुलना-"इतिहासपुराणेषु ब्रह्मादिर्योऽपि सर्ववित् । ज्ञानमप्रतिघं यस्य वैराग्यं चेति कीतितम् ।" -तत्वसं. इको. ३१९९ । उद्धृतोऽयम्-शास्त्रवा. १२ । प्र. मी. पृ. १२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002674
Book TitleShaddarshan Samucchaya
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorMahendramuni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year1981
Total Pages536
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size15 MB
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